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________________ श्राद्धविधि/१८२ . इन चारों अंगुलियों ने परस्पर मत्री कर अंगूठे को पूछा-तुम क्या काम आते हो ?" अंगूठे ने कहा-"अरे ! मैं तो तुम्हारा पति (मालिक) हूँ। लेखन, चित्रण, कवल लेना, चुटकी बजाना, चुटकी भरना, टिप्परिका, मुठ्ठी बाँधना, गठ लगाना, हथियार का उपयोग करना दाढ़ी-मूछ संवारना, काटना, लोंच करना, पीजना, बुनना, धोना, कूटकर भूसी अलग करना, परोसना, काँटा निकालना, गाय दूहना, जाप की संख्या गिनना, केश, फूल गूथना, पुष्प-पूजा आदि कार्य मेरे बिना कहाँ सम्भव हैं ? "दुश्मन का गला पकड़ना, तिलक करना, जिनामृत का पान करना तथा अंगुष्ठ कार्य आदि मेरे ही अधीन हैं।"-इस बात को सुनकर वे चारों अंगुलियाँ भी उसी के अधीन रहकर सब कार्य करने लगीं। ॐ गुरु के प्रति औचित्य-पालन के धर्माचार्य/गुरु को भक्ति और बहुमान पूर्वक कालिक वन्दन करना चाहिए। अन्तरंग प्रीति भक्ति कहलाती है और वाचिक और कायिक आदर बहुमान कहलाता है। गुरु के निर्देशानुसार आवश्यक आदि कृत्य करने चाहिए और उनके समीप अत्यन्त श्रद्धा-पूर्वक धर्मोपदेश का श्रवण करना चाहिए। धर्माचार्य के आदेश का आदर करना चाहिए और मन से भी उसकी अवज्ञा नहीं करनी चाहिए। अधर्मी पुरुषों के द्वारा हो रही धर्माचार्य की निन्दा आदि को रोकना चाहिए। शक्ति हो तो उसका प्रतिकार करना चाहिए। परन्तु उसकी उपेक्षा तो नहीं करनी चाहिए। कहा है "महान् पुरुषों की जो निन्दा करता है, वही पापी नहीं है, बल्कि उस निन्दा को जो सुनता है, वह भी पापी है।" प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप में की गयी गुरु की प्रशंसा प्रगण्य पुण्यानुबन्धी पुण्य का कारण है। गुरु के छिद्र नहीं देखने चाहिए और सुख-दुःख में मित्र की तरह उनका अनुसरण करना चाहिए और दुश्मन लोगों द्वारा किये जा रहे उपद्रवों को अपनी शक्ति के अनुसार दूर करना चाहिए । प्रश्न--अप्रमत्त और ममत्व रहित गुरु के विषय में श्रावकों को छिद्रान्वेषित्व और मित्रवत् भाव कैसे सम्भव है ? उत्तर-सत्य बात है। गुरु अप्रमत्त व ममत्वरहित ही होते हैं परन्तु भिन्न-भिन्न प्रकृति वाले उपासकों में धर्मगुरु के प्रति भी अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार भिन्न-भिन्न भाव हो सकते हैं । स्थानांग सूत्र में कहा है-“हे गौतम ! श्रावक चार प्रकार के हैं-माता-पिता के समान, भाई के समान, मित्र के समान और शोक्य समान ।" इनका विस्तृत वर्णन पहले आ चुका है। दुश्मन के उपद्रव को सर्वशक्ति से रोकना चाहिए। कहा भी है- "साधु और चैत्य के दुश्मन को, उनकी निन्दा को और जिनशासन की विरोधी प्रवृत्ति को सर्वप्रयत्नपूर्वक रोकना चाहिए।" इस विषय में सगर चक्रवर्ती के पौत्र भगीरथ राजा का जीव किसी एक पिछले भव में कुम्भट
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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