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________________ श्रावक जीवन-दर्शन/१८१ श्मशान में जो साथ रहता है, वह बन्धु कहलाता है।" स्वजन का उद्धार यह वास्तव में आत्मा का हो उद्धार है। अरहट के घड़ों की तरह व्यक्ति की समृद्धि और गरीबी बदलती रहती है। अतः कदाचित् दुर्भाग्य से अपने ही जीवन में आपत्ति पा जाय तो पूर्व में जिसके ऊपर उपकार किया होता है, वे ही अपने को सहायता करते हैं अतः अवसर देखकर स्वजनों का उद्धार अवश्य ही करना चाहिए। स्वजनों की निन्दा पीठ पीछे नहीं करनी चाहिए। मजाक में भी उनके साथ शुष्कवाद नहीं करना चाहिए, क्योंकि हास्य आदि में किये गये शुष्कवाद से दीर्घकाल की प्रीति भी नष्ट हो जाती है। स्वजनों के दुश्मनों के साथ मैत्री नहीं करनी चाहिए। उनके मित्रों के साथ मैत्री करनी चाहिए। स्वजन के घर में पुरुष न हो और अकेली स्त्री हो, उस समय उसके घर में नहीं जाना चाहिए। स्वजन के साथ पैसे का सम्बन्ध न करें किन्तु देव-गुरु व धर्म के कार्य में एकाग्रचित्त से उनके साथ काम करना चाहिए । स्वजनों के साथ धन का व्यवहार करने में प्रारम्भ में तो प्रीति बढ़ती हुई दिखाई देती है परन्तु परिणामस्वरूप शत्रता ही हाथ लगती है। कहा भी है—यदि तुम किसी से अत्यन्त प्रीति करना चाहते हो तो तीन कार्य मत करो(1) वादविवाद (2) आर्थिक सम्बन्ध और (3) परोक्ष में उसकी स्त्री से बातचीत । ___ इस लोक के कार्यों में भी स्वजनादि के साथ दत्तचित्तता भविष्य में लाभकारी है तो फिर चैत्यादि कार्यों में तो उनके साथ विशेषकर एकता (एकचित्तता) रखनी चाहिए। क्योंकि वे कार्य तो अनेक के अधीन हैं। संघ के कार्य एकतापूर्वक करने में ही कार्य का निर्वाह सुगम होता है और सब की शोभा होती है। स्वजनों के साथ एकता में पाँच अंगुलियों का दृष्टान्त समझना चाहिए। के पांच अंगुलियों का दृष्टान्त के तर्जनी अंगुली लेखन, चित्रकला, वस्तु बताने में, किसी की प्रशंसा करने में, किसी की तर्जना करने में तथा चुटकी भरने में उपयोगी होने से वह गर्व से मध्यमा को कहने लगी-"तुम्हारी क्या विशेषताएँ हैं ?" उसने कहा- "मैं सभी अंगुलियों में मुख्य बड़ी और मध्य में रही हुई हूँ। तेजी, गीत, ताल आदि कार्यों में कुशल हूँ। चुटकी से कार्य की जल्दबाजी बताती हूँ, दोष व छल का नाश करने वालो तथा टिप्परिका (भाषा में टोला मारना) से शिक्षा करने वाली हूँ।" उसी समय तीसरी अंगुली बोली-"देव, गुरु, स्थापनाचार्य, सार्मिक आदि की नवांगी चन्दन-पूजा, मांगलिक के लिए स्वस्तिक, नंद्यावर्त आदि की रचना, जल, चन्दन, वासक्षेप आदि को अभिमंत्रित करना आदि कार्य मेरे अधीन हैं।" __ चौथी अंगुली ने भी कहा, "मैं छोटी हूँ। किन्तु कान के भीतर खाज आदि सूक्ष्म कार्य मैं करती हूँ। शाकिनी आदि के दोषों का निग्रह करने हेतु शारीरिक पीड़ा में छेद आदि पीड़ा को मैं . सहन करती हूँ। जाप की संख्या गिनने आदि कार्यों में अग्रणी हूँ।"
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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