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________________ श्राद्धविषि/१६८ होकर जो कुछ भी कृत्य करता है, वह निष्फल जाता है। इतना ही नहीं उससे धर्म की निन्दा भी होती है। अपने निमित्त से धर्म की निन्दा कराने वाला व्यक्ति स्व-पर को दुर्लभबोधि बनाता है। अतः सर्वप्रयत्नपूर्वक विचक्षण पुरुष को वैसी ही प्रवृत्ति करनी चाहिए, जिससे अबुधजन भी धर्म की निन्दा न करें। __. लोक में भी आहार के अनुसार देह की प्रकृति का बन्ध देखा जाता है। जसे-बाल्यकाल में भैंस का दूध पीये हुए घोड़े जल में आराम से पड़े रहते हैं और गाय का दूध पीये हुए जल से दूर ही रहते हैं। इसी प्रकार मनुष्य भी बाल्यकाल में जैसा आहार लेता है, उसी के अनुसार उसकी प्रकृति बनती है अतः व्यवहारशुद्धि के लिए विशेष प्रयत्न करना चाहिए। प्रदेश प्रादि के विरुद्ध वर्तन का त्याग के देश, काल तथा राजादि के विरुद्ध वर्तन का भी त्याग करना चाहिए। हितोपदेशमाला में कहा है-“देश, काल, राजा, लोक तथा धर्म के प्रतिकूल वर्तन का त्याग करने वाला मनुष्य, सम्यग् धर्म को प्राप्त करता है।" ___ सौवीर (सिंध) देश में खेती कर्म और लाट देश में शराब-निर्माण देशविरुद्ध है। अन्य भी जिस देश में शिष्टजनों के द्वारा जो अनाचरणीय है, वह देशविरुद्ध कहलाता है। जाति, कुल आदि की अपेक्षा भी जो अनुचित है, वह देशंविरुद्ध कहलाता है। जैसे-ब्राह्मण के लिए सुरापान और तिल, लवण आदि का विक्रय । उनके शास्त्र में भी कहा है-"जो तिल का व्यवसाय करते हैं उनकी तिल की तरह लघुता होती है, वे तिल की तरह श्याम गिने जाते हैं और तिल की तरह पेले जाते हैं।" ___ "कुल की अपेक्षा से चौलुक्य वंशजों के लिए मद्यपान देशविरुद्ध है। विदेशी व्यक्ति के सामने उसके देश की निन्दा करना भी देशविरुद्ध है।" * कालविरुद्ध * सर्दी की ऋतु में अत्यन्त ठण्डे हिमालय आदि प्रदेश में, ग्रीष्म ऋतु में मरुस्थल में, वर्षा ऋतु में अत्यन्त कीचड़ वाले पश्चिम तथा दक्षिण समुद्र के प्रदेशों में अपनी विशेष शक्ति और सहायता के बिना जाना कालविरुद्ध है। भीषण दुष्कालवाले प्रदेश में, परस्पर दो राजाओं के विरोधी प्रदेश में, लूटपाट के कारण जो मार्ग बन्द हो गया हो ऐसे मार्ग में, भयंकर जंगल में, संध्यासमय आदि भयंकर समय में विशेष सामर्थ्य और सहायता के बिना जाना कालविरुद्ध कहा जाता है। उससे प्राणों का व धन का नाश होता है। अथवा फाल्गुन मास के बाद तिल पीलना, तिल का व्यापार करना, तिल का भक्षण करना तथा वर्षाकाल में तांदुल की भाजी आदि शाक ग्रहण करना एवं बहुत से जीवों से व्याप्त भूमि में गाड़ी आदि चलाना, महादोष में हेतुभूत होने से कालविरुद्ध है। * राजविरुद्ध * राजा प्रादि के दोष देखना, राजादि को मान्य हो उन्हें सम्मान न देना, राजा को असम्मत ऐसे लोगों के साथ दोस्ती करना, लोभ से दुश्मन के क्षेत्र में जाना, दुश्मन के क्षेत्र से आये हुए लोगों
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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