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________________ श्रावक जीवन-दर्शन / १६७ से वह इसी समय उसे कोई एक योगी मिला, उससे उसने कपट से सुवर्ण बनाने की युक्ति सीख ली । इस प्रकार सिद्धरस, दूसरी चित्रावेल और तीसरी सुवर्णसिद्धि इन तीन पदार्थों की महिमा अनेक कोटीश्वर बन बैठा । परन्तु अन्याय से उपार्जन किया हुआ होने के कारण और पहले निर्धन था फिर धनवान बना हुआ होने से अहंकार के कारण किसी भी सुकृत के आचरण में, सज्जन लोगों के कार्यों में या दीन-हीन, दुःखी लोगों को सुख देने की सहायता के कार्य में या अन्य किसी अच्छे कार्य के उपयोग में उस धन में से एक पाई भी खर्च न हो सकी । उल्टा वह सभी लोगों को सताने लगा, नये-नये कर बढ़ाने लगा तथा अहंकार से अन्य धनवानों की स्पर्धा, मत्सर आदि से उसकी लक्ष्मी लोगों को कालरात्रि के समान मालूम होने लगी । एक समय रंक सेठ की पुत्री के हाथ में एक रत्नजड़ित कंघी देखकर बल्लभीपुर के राजा की पुत्री ने अपने पिता से कहकर वह कंघी मंगवाई, परन्तु प्रति लोभी होने के कारण उसने वह कंघी नहीं दी । इससे कोपायमान हो शिलादित्य राजा ने किसी प्रकार छल-भेद से उस कंघी को मंगवाकर उसे वापस नहीं दी । इससे रंक सेठ को बड़ा क्रोध चढ़ा, उसने बदला लेने के लिए अपर द्वीप में रहने वाले महादुर्धर मुगल राजा को करोड़ों रुपये सहाय देकर शिलादित्य पर चढ़ाई करने हेतु प्रेरित किया । शिलादित्य राजा के सूर्य के वरदान से प्राप्त दिव्य घोड़े पर चढ़ने के बाद संकेत किये हुए उसके पुरुष शंख बजाते थे जिससे घोड़ा आकाश में चलता था और जिस पर आरूढ़ हुआ राजा शत्रु को खत्म करता था । संग्राम के खत्म होते ही वह दिव्य घोड़ा पुनः सूर्यमण्डल में प्रवेश करता था । इस हकीकत से वाकिफ उस रंक सेठ ने शंख बजाने वालों को गुप्तद्रव्य देकर फोड़ा जिससे राजा के घोड़े पर सवार होने के पहले ही उन्होंने शंख बजाया जिससे घोड़ा आकाश में उड़कर चला गया और राजा नीचे ही रह गया । ऐसा होने से शिलादित्य राजा - हा ! हा ! अब क्या किया जाय ? इस प्रकार पश्चाताप करने लगा, इतने में ही मुगल लोगों के सुभटों ने आकर हल्ला करके उसे वहीं पर जान से खत्म करके वल्लभीपुर का भंग किया । इसलिये शास्त्र में 'तित्थोगालि पयण्णा' में यह लिखा है कि विक्रमार्क के संवत् में तीन सौ पिचहत्तर वर्ष व्यतीत होने के बाद वल्लभीपुर भंग हुआ । मुगल लोग भी निर्जल देश में मारे गये थे । इस प्रकार रंक सेठ का अन्याय से उपार्जन किया हुआ द्रव्य अनर्थ के मार्ग में ही व्यय हुआ परन्तु उससे उसका सदुपयोग न हो सका । फ व्यवहार-शुद्धि का स्वरूप 5 इस प्रकार अन्याय से उपार्जित धन के दुष्परिणाम को जानकर न्याय से अर्जर्थान के लिए प्रयत्न करना चाहिए । कहा है- " साधुनों के विहार, प्राहार, व्यवहार और वचन ये चार बातें शुद्ध देखी जाती हैं, जबकि गृहस्थों का तो एक व्यवहार ही शुद्ध देखा जाता है ।" , व्यवहारशुद्धि से ही धर्म की सम्पूर्णता होती है । दिनकृत्यकार ने कहा है- "सर्वज्ञभाषित धर्म का मूल व्यवहारशुद्धि है। शुद्ध व्यवहार से ही अर्थशुद्धि होती है । शुद्ध अर्थ से प्रहार की भी शुद्धि होती है | आहारशुद्धि से देहशुद्धि होती है । शुद्ध देह से धर्म की योग्यता पैदा होती है, जिसके फलस्वरूप वह जो-जो करता है उसमें उसे सफलता मिलती है । व्यवहारशुद्धि से रहित
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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