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________________ श्रावक जीवन-दर्शन / १६९ के साथ व्यवहार करना, राजा की महर समझकर राजकृत्यों में स्वेच्छा से परिवर्तन करना, नगरजनों के साथ प्रतिकूल व्यवहार करना, तथा स्वामी का द्रोह करना इत्यादि राजविरुद्ध है । भुवनभानु केवली के जीव रोहिणी की तरह उसका परिणाम अच्छा नहीं आता है । रोहिणी - रोहिणी अत्यन्त निष्ठा वाली पढ़ी-लिखी तथा स्वाध्याय के प्रति लक्ष्य वाली थी; परन्तु उसे विकथा करने का रस था। वह राजा की रानी पर दुःशीलता आदि के प्रक्षेप करने लगी। इससे राजा को बड़ा गुस्सा भाया । उसने उत्तमसेठ की पुत्री होने से उसकी जीभ के टुकड़े टुकड़े नहीं किये परन्तु उसे नगर से बाहर निकाल दिया। विकथा के पाप के कारण उसे अनेक भवों में जिह्वाछेद आदि की वेदना सहन करनी पड़ी। * परनिन्दा नहीं करना लोक की तथा विशेष करके गुणीजनों की निन्दा कभी नहीं करनी चाहिए। लोकनिन्दा और आत्म-प्रशंसा दोनों लोकविरुद्ध हैं । कहा है- " दूसरे के विद्यमान श्रथवा श्रविद्यमान भी दोष कहने से क्या फायदा है ? उससे धन और यश तो नहीं मिलता है, बल्कि एक नया दुश्मन ही पैदा होता है ।" “आत्मप्रशंसा, परनिन्दा, निरंकुश जीभ, कामराग और कषाय ये पाँच वस्तुएँ अच्छा प्रयत्न करने वाले श्रमरण को भी खाली कर देती है ।" “यदि तुम्हारे में गुरण विद्यमान होंगे तो नहीं कहने पर भी वे (गुरण) तुम्हारा उत्कर्ष कर देंगे और यदि गुरण नहीं हैं तो उनका बखान करने से क्या फायदा ?" निरर्थक आत्म-प्रशंसा करने वाले व्यक्ति पर उसके मित्र हँसते हैं । बन्धुजन उसकी निन्दा करते हैं, गुरुजन उसकी उपेक्षा करते हैं और माता-पिता भी उसे प्रादर नहीं देते हैं । दूसरों का पराभव और निन्दा करने से तथा श्रात्मप्रशंसा करने से आत्मा प्रत्येक भव में ऐसे नीच गोत्र कर्म का बंध करती है कि करोड़ों भवों से भी उस पाप की सजा में से नहीं छूट पाती है । परनिन्दा महापाप है । पाप नहीं करने पर भी वे पाप परनिन्दा करने वाले को निन्दक बुढ़िया की तरह लग जाते हैं । परनिन्दक बुढ़िया : लोक में प्रसिद्ध दृष्टान्त है - सुग्राम में सुन्दर नाम का सेठ रहता था, जो अत्यन्त ही धार्मिक था। यात्रिकों को भोजन, आवास आदि देकर वह यात्रिकों पर उपकार करता था । उसके पड़ोस में एक बुढ़िया रहती थी जो सतत उसकी निन्दा करती हुई बोलती थी कि यात्रिक लोग तो विदेश में ही मर जाते हैं, अतः उनकी न्यास आदि पाने के लोभ से यह सेठ इस प्रकार अपनी सच्चाई बतलाता है । एक बार भूख-प्यास से पीड़ित एक संन्यासी उसके घर पर आया । छाछ नहीं होने से एक प्राभीरी (रबारिन) के घर से छाछ मंगाकर उसे पिला दी । उस सेठ ने घर में
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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