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________________ बाढविषि/१५६ बात-बात में सौगंध नहीं खानी चाहिए और विशेषकर देव-गुरु की तो नहीं खानी चाहिए। कहा है "जो मूढ़ व्यक्ति सच्ची और झूठी भी चैत्य की सौगंध खाता है, वह बोधिबीज का वमन करता है और अनन्त संसारी होता है।" न्यायालय में जामिन की झंझट में नहीं पड़ना चाहिए । कार्यासिक ने कहा है-“गरीब के दो पत्नियाँ, मार्ग में क्षेत्र, दो प्रकार की खेती, जामिन देना और साक्षी देना ये पांचों अपने आप किये हुए अनर्थ हैं।" सामान्यतया तो अपने गाँव में ही व्यापार आदि करना चाहिए। गांव में ही व्यापार करने से कुटुम्बीजनों का वियोग नहीं होता है और गृहकार्य, धर्मकार्य आदि में भी कोई तकलीफ नहीं पाती हैं। अपने गाँव में निर्वाह शक्य न हो तो अपने देश के अन्दर ही व्यापार करे जिससे समय-समय पर अपने गाँव आ सके। वह कौन मूर्ख (पामर) होगा, जो अपने नगर में जीवन-निर्वाह सम्भव होने पर विदेश जाने का कष्ट उठायेगा? __ कहा भी है-“हे अर्जुन ! दरिद्री, रोगी, मूर्ख, मुसाफिर और नित्य सेवक ये पांच लोग जीते हुए भी मरे हुए के समान ही हैं।" अन्य किसी उपाय से जीवन-निर्वाह सम्भव न हो और विदेश जाना पड़े तो भी स्वयं व्यापार न करे और न ही पुत्र प्रादि के द्वारा कराये, किन्तु सुपरीक्षित विश्वसनीय वणिकपुत्र प्रादि के साथ विदेश जाये तब शुभ-मुहूर्त में शुभ शकुन व निमित्त को देखकर देव व गुरु को वन्दन आदि मांगलिक विधिपूर्वक भाग्यशाली सार्थ के साथ जाये। अपनी ज्ञाति के सुपरिचित लोगों को भी साथ रखना चाहिए। मार्ग में निद्रादि प्रमाद का त्याग करना चाहिए और प्रयत्नपूर्वक व्यापार आदि करना चाहिए। साथ में एक भी भाग्यशाली हो तो सभी के विघ्न दूर हो जाते हैं। ॐ विघ्न-नाश 卐 एक बार वर्षा ऋतु में इक्कीस व्यक्ति अन्य गांव जा रहे थे। संध्या समय किसी देवकुल में ठहरे। वहाँ बिजली द्वार तक आ-आकर वापस चली जाती थी। मन में भय पैदा होने से वे बोले"अपने में कोई दुर्भागी व्यक्ति लगता है, अतः बारी-बारी से एक-एक व्यक्ति बाहर निकलकर देवकुल की प्रदक्षिणा देकर यहाँ आवे।" इस प्रकार निश्चय करने पर एक-एक कर बीस व्यक्ति देव-कुल की प्रदक्षिणा देकर वापस आ गये। तब इक्कीसवें व्यक्ति को बलात्कार से जैसे ही बाहर निकाला त्यों ही वह बिजली उन बीस व्यक्तियों पर गिर पड़ी। उनमें वह एक ही भाग्यशाली था। . प्रतः विदेश जाय तो भाग्यशाली व्यक्ति के साथ ही जाय और जाने के पूर्व जो कुछ लेनदेन और निधि हो वह अपने पिता, भाई तथा पुत्र आदि को बता दे ताकि कदाचित् दुर्भाग्यवश आयुष्य समाप्त हो जाय तो भी पिता आदि को दरिद्रता आदि दुःख की पीड़ा न हो। विदेश हेतु प्रयाण करते समय अपने कुटुम्बीजनों को इकट्ठा कर बहुमानपूर्वक योग्य हित-शिक्षा प्रदान करे। कहा भी है-"सम्माननीय व्यक्ति का अपमान करके, स्त्री की निर्भर्त्सना करके, किसी की ताड़ना करके और बालक को रुलाकर जीवन के इच्छुक को कहीं बाहर जाना उचित नहीं है।" निकट में
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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