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________________ श्रावक जीवन-दर्शन/१५५ आये थे। वणिक् ने उन चोरों को पहिचान लिया। उसने अपना धन मांगा। धन नहीं देने पर यह मामला न्यायालय में गया । न्यायाधीश ने पूछा-"कोई साक्षी है ?" वणिक् ने काले बिलाड़े को पिंजरे में डालकर कहा---"यह साक्षी है।" चोरों ने कहा-"जरा देखें। साक्षी कौन है ?" इस प्रकार पूछने पर वणिक् ने कहा-“यह साक्षी है।" उसी समय उन चोरों ने कहा-“यह साक्षी नहीं है। यह तो श्याम है, वह तो कबरे रंग का था।" अपने मुह से ही साक्षी को स्वीकार कर लेने के कारण तत्काल न्यायाधीश ने वह सारा धन वणिक् को देने के लिए चोरों पर दबाव डाला। साक्षी के कारण वणिक् ने अपना धन वापस प्राप्त कर लिया। ॐ न्यास-स्थापना के न्यास की लेनदेन गुप्तवृत्ति से नहीं करनी चाहिए बल्कि स्वजनों की उपस्थिति में ही न्यास रखनी चाहिए अथवा लेनी चाहिए। न्यास के मालिक की अनुमति के बिना उस न्यास को हटाना भी उचित नहीं है तो फिर उसे व्यापार आदि में तो कैसे लगा सकते हैं ? यदि न्यास रखने वाला मर जाय तो उसकी वह न्यास उसके पुत्र आदि को सौंप देनी चाहिए। पुत्र आदि का प्रभाव हो तो संघ समक्ष बातकर वह धन धर्मस्थान में खर्च करना चाहिए। उधार, न्यास आदि के आयव्यय के हिसाब को लिखने में आलस्य नहीं करना चाहिए। कहा भी है "धन को गाँठ-बांधने में, धन की परीक्षा करने में, धन को गिनने में, धन को छुपाने में, धन का व्यय करने में और धन का हिसाब-किताब लिखने में जो व्यक्ति आलस्य करता है, वह व्यक्ति शीघ्र नष्ट होता है।" भूल जाना मनुष्य का स्वभाव है। चोपड़े में नहीं लिखने से भ्रांति हो जाती है, जिससे व्यर्थ ही कर्मबंध होता है। अपने निर्वाह के लिए जिस प्रकार चन्द्रमा सूर्य का आश्रय करता है, उसी प्रकार राजा आदि किसी नायक का अनुसरण करना चाहिए । अन्यथा कदम-कदम पर पराभव आदि सहन करना पड़ता है। कहा भी है-“सज्जनों के उपकार और शत्रुनों के प्रतिकार के लिए राजा के माश्रय की जरूरत पड़ती है। केवल अपनी पेटपूर्ति का प्रयत्न कौन नहीं करता है ? अर्थात् सभी लोग अपनी पेटपूर्ति करते ही हैं, परन्तु राजा का प्राश्रय केवल पेटपूर्ति के उद्देश्य से नहीं होता है।" वस्तुपाल मंत्री और पेथड़शाह आदि ने राजा की मदद से ही अनेक जिनमन्दिर प्रादि बनवाने का पुण्यकार्य किया था। सज्जन व्यक्ति को जुमा, धातुवाद आदि व्यसनों से सर्वथा दूर ही रहना चाहिए। कहा भी है-"जुमा, धातुवाद, अंजनसिद्धि, रसायन, यक्षिणी की गुफा में प्रवेश-इत्यादि कार्य भाग्य रूठने पर ही करने की इच्छा होती है।"
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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