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________________ श्रावक जीवन-दर्शन/१५१ (2) अज्ञान कष्ट से पापानुबन्धी पुण्य के उदय वाले कोणिक आदि की तरह नीरोगता आदि गुणों से युक्त बड़ी समृद्धि वाले और पापकार्य में रक्त होते हैं । (3) जो जीव द्रमक मुनि की तरह पाप के उदय से निर्धन और दुःखी होने पर भी दया आदि के कारण जिनधर्म प्राप्त करते हैं, उनके पुण्यानुबन्धी पाप का उदय समझना चाहिए। (4) कालशौकरिक कसाई की तरह जो पापी कठोर कर्म करने वाले हैं, अधर्मी हैं, निर्दय हैं, पाप के पश्चाताप से रहित हैं और दुःखी होने पर भी पापकर्म में निरत हैं, वे पापानुबन्धी पाप के उदय वाले समझने चाहिए। "पुण्यानुबन्धी पुण्य के प्रभाव से बाह्य और अन्तरंग ऋद्धि प्राप्त होती है। जिस मनुष्य के पास एक भी ऋद्धि नहीं है, उसके मनुष्यपने को धिक्कार हो।" ___"खण्डित भावना वाले जीव अखण्डित पुण्य को प्राप्त नहीं करते हैं। ऐसे जीव आगामी भव में आपदायुक्त सम्पदा प्राप्त करते हैं।" ___ इस प्रकार किसी को यदि पापानुबन्धी पुण्य के उदय से इस लोक में कोई विपत्ति दिखाई न दे तो भी उसके पाप का फल अागामी भवों में तो अवश्य होने वाला ही है। का । कहा भी:-"धन के राग में अंध बना व्यक्ति पाप से ही लाभ प्राप्त करता है, परन्त वह लाभ काँटे के ऊपर लगाये गये मांस के भक्षक मत्स्य की तरह उसका विनाश किये बिना नहीं पचता है।" अतः स्वामीद्रोह में हेतुभूत शुल्कभंग आदि यहाँ भी अनर्थकारी होने से उनका त्याग करना चाहिए। जिसमें दूसरों को थोड़ी भी पीड़ा होती हो ऐसा व्यवहार तथा गृह-हाट आदि का निर्माण तथा कुड़की से घर आदि लेने का या उसमें रहने का त्याग करना चाहिए। किसी को पीड़ा पहुंचाकर सुख-समृद्धि की वृद्धि कभी नहीं होती है। कहा भी है-"शठता से मित्र, कपट से धर्म, परपीड़ा से समृद्धि, सुखपूर्वक विद्या और कठोर व्यवहार द्वारा स्त्री को अधीन करना चाहता है, वह वास्तव में मूर्ख ही है।" अतः जिस प्रकार लोगों की प्रीति बढ़े, उसी प्रकार का व्यवहार करना चाहिए। कहा भी है ___"इन्द्रिय-जय विनय का कारण है, विनय से गुण का प्रकर्ष प्राप्त होता है, गुणप्रकर्ष से लोग खुश होते हैं। जनानुराग से हर तरह की सम्पत्ति प्राप्त होती है।" - "धनहानि, धन-वृद्धि और संग्रह आदि की गुप्त बात किसी को नहीं कहनी चाहिए।" कहा भी है __ "अपनी स्त्री, आहार, सुकृत, धन, गुण, दुष्कर्म, मर्म और मंत्र ये आठ बातें किसी को नहीं बतानी चाहिए।" यदि कोई पूछे तो भी झूठ न बोले बल्कि "ऐसे प्रश्नों से क्या मतलब ?" इस प्रकार भाषा
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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