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________________ श्राद्धविधि/१५० प्रगट-पाप भी दो प्रकार का है-(1) कुलाचार से करना और (2) निर्लज्ज बनकर करना। गृहस्थों के प्रारम्भ-समारम्भ के पाप और म्लेच्छों के हिंसादि पाप कुलाचार के प्रगट पाप हैं। ___ साधु - वेष में रहकर निर्लज्ज बनकर हिंसादि पापाचरण करना महापाप है। निर्लज्जता से पापाचरण शासन-मलिनता का हेतु होने से अनन्त संसार-भ्रमण का कारण बनता है। कुलाचार से प्रगट पापाचरण में अल्प कर्म का बंध होता है और गुप्त पाप करने से तीव्रतर कर्म का बंध होता है, क्योंकि गुप्त-पाप असत्यमय होता है। मन, वचन और काया से असत्य आचरण भयंकर पाप है। असत्यप्रेमी ही गुप्त पाप करते हैं। जो असत्य का त्यागी है, वह गुप्त पाप नहीं कर सकता। असत्य प्रवृत्ति से मनुष्य निर्दय बनता है। निर्दय व्यक्ति स्वामी, मित्र, विश्वासी का भी द्रोह कर महापाप कर सकता है। इसीलिए योगशास्त्र के प्रान्तर श्लोक में भी कहा है, "तराजू के एक पलड़े में असत्यजन्य पाप रखें और दूसरे पलड़े में अन्य सब पाप रख दें तो भी असत्य के पाप का पलड़ा भारी हो जायेगा।" अतः असत्यमय गुप्त पाप रूप दूसरे को ठगने के पाप का सर्वथा त्याग करना चाहिए। अन्यायमार्ग का अनुसरण परमार्थ से अर्थार्जन का रहस्यभूत उपाय न्याय ही है । वर्तमान में भी देखा जाता है कि न्याय से अर्थार्जन करने वाले को थोड़ा-थोड़ा धन उपार्जन करने पर भी तथा प्रतिदिन धर्मस्थान में धनव्यय करने पर भी उसका धन कुए के जल की भाँति अक्षय बना रहता है। "अन्याय-अनीति से अर्थार्जन करने वाले लोग कदाचित् ज्यादा धन कमा लें और बहुत खर्च न करें तो भी मरुभूमि के सरोवर की भाँति उनका धन शीघ्र नष्ट हो जाता है।" कहा भी है-"छिद्र (पाप) से होने वाली परिपूर्णता कभी उन्नति के लिए नहीं होती है, बल्कि प्रात्मनाश के लिए ही होती है। क्या अरहट में बारम्बार डूबते हुए घटीयंत्र (घड़ों) को नहीं देखते हो?" प्रश्न--न्यायमार्ग में एकनिष्ठ होने पर भी कुछ लोग निर्धनता आदि के कारण अत्यन्त दुःखी दिखाई देते हैं और कुछ लोग अन्यायमार्ग में तत्पर होने पर भी समृद्धि के द्वारा अत्यन्त सुखी दिखाई देते हैं तो फिर न्याय की प्रधानता कैसे ? उत्तर-धर्मी दुःखी और अधर्मी सुखी की जो विषमता लोक में देखी जाती है, वह पूर्वकृत कर्म का ही फल है, न कि इस भव के कर्म का। कर्म के चार प्रकार हैं। श्री धर्मघोष सूरिजी म ने कहा है "पुण्यानुबन्धी पुण्य, पापानुबन्धी पुण्य, पुण्यानुबन्धी पाप और पापानुबन्धी पाप (से कर्म के चार भेद हैं)। (1) जिनधर्म की विराधना नहीं करने वाले जीव भरतचक्री की तरह दुःखरहित और निरुपम सुख प्राप्त करते हैं। उनके पुण्यानुबन्धी पुण्य का उदय समझना चाहिए।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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