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________________ श्रावक जीवन-दर्शन / १४९ इसे सुनकर वह कुमार लज्जित हुआ । बन्दर ने उस राजपुत्र को पागल बना दिया । वह राजपुत्र 'विसेमिरा' 'विसेमिरा' कहता हुआ पागल की तरह घूमने लगा । राजपुत्र का अश्व तो राजभवन में आ गया था, अतः राजा ने राजपुत्र की शोध चालू की और अन्त में राजपुत्र को राजभवन में ला दिया गया । किसी भी उपाय जब राजपुत्र ठीक नहीं हुआ तब राजा ने शारदानन्द को याद किया । “मेरे राजपुत्र को जो ठीक करेगा उसे आधा राज्य दूंगा" इस प्रकार राजा के निर्णय करने पर मंत्री ने कहा- "मेरी पुत्री थोड़ा-बहुत जानती है ।" पुत्रसहित राजा मंत्री के घर गया। उसी समय पर्दे के भीतर रहे शारदानन्द कहा“विश्वासपात्र व्यक्ति को ठगने में कौनसी चतुराई है और गोद में सोये हुए को खत्म करने में कौनसा पराक्रम है ?" इस बात को सुनने पर राजपुत्र ने 'वि' अक्षर छोड़ दिया । "समुद्र के सेतु पर जहाँ गंगा - सागर का संगम होता है वहाँ पर स्नान करने से ब्रह्महत्या के पाप से पापी मुक्त हो जाते हैं, परन्तु मित्र से द्रोह करने वाला कभी मुक्त नहीं होता है ।" इस बात को सुनने पर राजपुत्र ने दूसरा अक्षर छोड़ दिया । "मित्र से द्रोह करने वाला, कृतघ्न, चोर और विश्वासघाती ये चार नरक में जाते हैं । जब तक चन्द्र, सूर्य हैं तब तक नरक के दुःख भोगते हैं ।" राजपुत्र ने तीसरा अक्षर भी छोड़ दिया । राजपुत्र का भला चाहते हो तो सुपात्र में दान दो । गृहस्थ दान से इस बात को सुनने पर "हे राजन् ! यदि तुम ही शुद्ध होता है ।" इस बात को सुनने पर राजपुत्र एकदम ठीक हो गया और उसने व्याघ्रादि का वृत्तान्त बता दिया । उसी समय राजा ने कहा- "हे बाला ! तू तो गाँव में रहती है तो फिर तू जंगल में हुई व्याघ्र, बन्दर एवं मनुष्य की बात को कैसे जानती है ?" उसी समय पर्दे के भीतर रहे शारदानन्द ने कहा - " देव गुरु की कृपा से मेरी जीभ पर सरस्वती रही हुई है, अतः हे राजन् ! जिस प्रकार मैंने भानुमती रानी के तिल को जाना था, उसी प्रकार इस बात को भी जान लिया । " यह बात सुनकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसी समय राजा और शारदानन्द का मिलन हुआ। दोनों खुश हो गये । * पाप के प्रकार पाप के दो प्रकार हैं- गुप्त और प्रगट । गुप्त - पाप के दो भेद हैं--छोटा और बड़ा । खोटे माप-तौल आदि रखना छोटा गुप्तपाप है और किसी का विश्वासघात करना बड़ा गुप्तपाप है ।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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