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________________ श्रावक जीवन-दर्शन / १३३ "राज्य सुना जाता है कि दिल्ली में राजा को मान्य किसी मन्त्री ने गर्व से किसी को कहा--' तो मेरे द्वारा ही चलता है ।" इस बात का राजा को पता चलते ही राजा ने उसे अपने पद से नीचे उतार दिया और उसके स्थान पर अपने हाथ में रांपड़ी ( चमार का औजार) रखने वाले किसी चमार को बिठा दिया । उसके हिसाब-किताब के कागजों पर रांपड़ी ही पहचान का चिह्न था । आज ( श्राद्धविधि रचना के काल में ) भी उसकी परम्परा मान्य है । * राजसेवा प्रादि से लाभ * इस प्रकार सेवा से राजा आदि प्रसन्न हो जाय तो ऐश्वर्य आदि की प्राप्ति का लाभ कठिन नहीं है । कहा भी है- " ईख का खेत, समुद्र, योनि-पोषण तथा राजा का अनुग्रह शीघ्र ही दरिद्रता का नाश करता है ।" "सुख के इच्छुक अभिमानी लोग भले ही राजसेवकों की निन्दा करें परन्तु राजसेवा किये बिना स्वजन का उद्धार व शत्रु का संहार शक्य नहीं है ।" पत्ति के समय में अच्छी तरह से सेवा करने वाले वोसिरी ब्राह्मण को कुमारपाल राजा ने लाट देश प्रदान किया था । सर्प के उपद्रव को दूर करने से प्रसन्न बने जितशत्रु राजा ने पहरेदार राजपुत्र देवराज को अपना राज्य दे दिया और स्वयं ने दीक्षा स्वीकार कर मोक्ष प्राप्त किया । मंत्री, श्रेष्ठी, सेनानी आदि के व्यापार भी पापमय तथा परिणाम में नीरस होने से मुख्यतया तो राजसेवा के अन्तर्गत ही आते हैं । वह व्यापार श्रावकों को नहीं करना चाहिए । कहा भी है- "मनुष्य को जो अधिकार दिया जाता है, उसमें वह चोरी किये बिना नहीं रहता ? क्या धोबी खरीद करके कपड़े पहनेगा ?" अधिकार नयी-नयी समस्याओं को ही बढ़ाने के कारण प्रत्यक्ष जेलखाने ही हैं। राजकर्मचारी को पहले बन्धन नहीं होता है, परन्तु बाद में तो उसे भी बन्धन ही है । हर प्रकार से राजनौकरी को छोड़ने में असमर्थ व्यक्ति को भी गुप्तिपाल (गुप्तचर ), कोटवाल ( किले का रक्षक) तथा सीमापाल ( राज्य-सीमा का रक्षक) आदि व्यापार तो अत्यन्त पापमय और निर्दयी लोगों के लायक होने से श्रावक को नहीं करने चाहिए। दीवान, तलावर्तक, नम्बरदार, मुखिया आदि बनना सुखदायी नहीं है । राज-सम्बन्धी अन्य व्यापार स्वीकार करने पड़ें तो वस्तुपाल मंत्री तथा पृथ्वीधर आदि की तरह श्रावक के सुकृतों की कीर्ति बढ़- - इस प्रकार करने चाहिए। कहा भी है "जो लोग पापमय राजकार्य करने पर भी उसके द्वारा धर्मकृत्य कर पुण्य उपार्जन नहीं करते हैं, वे मनुष्य धन के लिए धूल धोने वाले ( निहारिया ) लोगों से भी अधिक मूढ़ हैं ।" "राजा की अपने ऊपर बहुत कृपा हो तो भी प्रजा को चिढ़ाना नहीं चाहिए। यदि किसी कार्य में अपनी नियुक्ति की जाये तो भी मुखिया को आगे रखकर काम करना चाहिए ।" श्रावक को राजसेवा करनी पड़े तो भी सुश्रावक राजा की ही करनी उचित है । कहा भी है
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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