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________________ श्राद्धविधि / १३२ सेवक की योग्यतानुसार उसका सन्मान आदि करना, यह स्वामी का कर्त्तव्य है । कहा भी है "यदि राजा सभी नौकरों के साथ एक ही समान व्यवहार करता है तो उद्यमशील नौकरों का उत्साह भंग हो जाता है ।" सेवक को भी भक्ति, चातुर्य आदि गुणों से युक्त बनना चाहिए । कहा है "बुद्धिहीन और कायर सेवक स्वामी पर खूब अनुराग रखे तो भी इससे स्वामी को क्या लाभ ? सेवक प्रज्ञावान् और पराक्रमी हो परन्तु उसके दिल में स्वामी के प्रति आदर न हो तो भी स्वामी को क्या लाभ ? अतः प्रज्ञा, पराक्रम और भक्ति से युक्त सेवक ही राजा को सम्पत्ति और विपत्ति के समय में उपयोगी बन सकता है, इसके सिवाय अन्य सेवक तो केवल स्त्री समान ही हैं ।" राजा खुश हो जाय तो वह सेवकों को मान-सम्मान ही प्रदान करता है, जबकि सम्मानित बने सेवक तो अपने प्राण देकर भी राजा का उपकार करते हैं । सेवा हमेशा अप्रमत्तभाव से होनी चाहिए। कहा भी है--" उपायों से वशीभूत किये गये सर्प, व्याघ्र, हाथी और सिंहों को देखकर अप्रमत्त बुद्धिमानों को सोचना चाहिए कि राजा को वश में करना तो क्या कठिन है ! " राजा को वश करने की विधि नीतिशास्त्र आदि में इस प्रकार कही है- "सेवक को राजा (स्वामी) के समीप उसके मुख की ओर नजर कर हाथ जोड़कर बैठना चाहिए। राजा के संकेत व स्वभाव को पहिचान कर राजा के सब कार्य करने चाहिए ।" सभा में राजा के अति निकट या अतिदूर नहीं बैठना चाहिए । राजा से ऊँचे अथवा समान प्रासन पर भी नहीं बैठना चाहिए । राजा के एकदम पीछे और एकदम आगे भी नहीं बैठना चाहिए । “अत्यन्त निकट बैठने से स्वामी की पीड़ा होती है, दूर बैठने से साहसहीनता प्रगट होती है, आगे बैठे तो दूसरे के ऊपर का कोप उस पर उतर जावे और पीछे बैठने पर तो दिखाई ही नहीं देगा ।" "राजा यदि थका हुआ हो, भूखा हो, कुपित हो, व्याकुल हो, सोने की तैयारी में हो, प्यासा हो, अन्य किसी ने अर्ज की हो, उस समय उसे किसी प्रकार की अर्ज नहीं करनी चाहिए ।" राजमाता, महारानी, राजकुमार, मुख्यमंत्री, राजपुरोहित तथा द्वारपाल आदि के साथ भी राजा की तरह व्यवहार करना चाहिए । "इस दीपक को तो मैंने ही प्रगटाया है, अतः इसकी श्रवगणना करूंगा तो भी यह मुझे नहीं "" जलायेगा, ' इस भ्रम से भी दीपक की लौ के साथ अंगुली का स्पर्श नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह दीपक इतनी दया नहीं करता है कि इसने मुझे प्रगटाया है, अत: इसे मैं कैसे जलाऊँ ? इसी प्रकार राजा के साथ भी व्यवहार करते समय यह सावधानी रखनी चाहिए । स्वयं राजा को मान्य हो तो भी उसका गर्व नहीं करना चाहिए क्योंकि “गव्यो मूलं विरणासस्स" यानी गर्व विनाश का मूल है, इस प्रकार की कहावत है ।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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