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________________ श्राद्धविषि/१३४ ज्ञान और दर्शन से युक्त श्रावक के घर दास होना स्वीकार है, परन्तु मिथ्यात्व से मोहितमति वाला राजा या चक्रवर्ती बनना स्वीकार नहीं है। निर्वाह का अन्य कोई साधन न हो तो समकिती को वित्तिकन्तारेणं आगार' होने से यदि मिथ्यादृष्टि राजा आदि की भी सेवा करनी पड़े तो अपनी शक्ति और युक्ति के अनुसार अपनी धर्म-बाधा (अन्तराय) को टालना चाहिए और आजीविका का थोड़ा भी कोई उपाय मिल जाये तो श्रावक मिथ्यादृष्टि की सेवा का त्याग कर दे। .... (7) धातु, धान्य और वस्त्र आदि के भेष से भिक्षा के अनेक भेद हैं । .सर्वसंग का परित्याग करने वाले मुनियों को ही धर्मकार्य के लिए आधार-भूत आहार, वस्त्र, पात्र आदि को भिक्षा उचित है। कहा भी है- "हे भगवती भिक्षा ! तू प्रतिदिन प्रयत्न बिना प्राप्त होने वाली है, भिक्षुकजन की माता समान है, साधुजन की कल्पलता समान है, राजा भी तुझे नमस्कार करते हैं, तू नरक को टालने वाली है, तुझे मैं नमस्कार करता हूँ।" । अन्य सब भिक्षाएँ तो मनुष्य की लघुता को उत्पन्न करने वाली हैं। कहा भी है-."तभी तक मनुष्य के रूप, गुण, लज्जा, सत्य, कुलक्रम व स्वाभिमान की कीमत है जब तक वह 'मुझे दो' इस प्रकार नहीं बोलता। (याचना के प्रारम्भ के साथ ही रूप आदि सभी गुण नष्ट हो जाते हैं)।" "तृण से भी हल्की रुई है, परन्तु याचक तो रुई से भी हल्का है। फिर प्रश्न उठता है कि तो फिर पवन उसे क्यों नहीं उड़ाकर ले जाता है ? उत्तर यही है कि पवन को भी भय है कि शायद मेरे पास भी यह याचना करेगा तो?" रोगी, चिरप्रवासी, दूसरे का अन्न खाने वाला, दूसरे के घर सोने वाला मनुष्य जीता है तो वह उसका मरण है और उसका जो मरण है. वह उसका विश्राम है। भिक्षा से जीवन जीने वाला, चिन्तामुक्त होने से अतिभोजन, आलस्य, निद्रा आदि की प्रचुरता होने के कारण कुछ काम भी नहीं कर सकता। * भिक्षान्न खाने में अवगुण * "किसी कापालिक के भिक्षापात्र में घांची के बैल ने अपना मुह डाल दिया, तब कोलाहल करके कापालिक ने कहा- "मुझे तो दूसरी भिक्षा मिल जायेगी, परन्तु इस बैल ने भिक्षापात्र में मुंह डाल दिया। इसके फलस्वरूप यह आलसी व निद्रालु बनकर कुछ काम न कर सकेगा। इसी का मुझे भय है।" * भिक्षा के भेद * श्रीमद् हरिभद्रसूरिजी म. ने पाँचवें अष्टक में भिक्षा के तीन भेद बतलाये हैं—(1) सर्वसम्पत्करी, (2) पौरुषघ्नी और (3) वृत्तिभिक्षा । * इस मागार का अर्थ यह होता है कि अगर निर्वाह का अन्य कोई साधन नहीं हो तो मिथ्याइष्टि प्रादि को नमस्कार, सेवा मादि करके भी अपनी आजीविका चलायी जाती है।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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