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________________ श्रादविषि/१२२ " ज्ञान और क्रिया का समन्वय इस कारण प्रतिदिन धर्मोपदेश सुनना चाहिए और उसके अनुसार यथाशक्ति उद्यम करना चाहिए। क्योंकि औषध व भोजन के ज्ञान मात्र से कभी आरोग्य-प्राप्ति या तृप्ति नहीं होती है, किन्तु उसके उपयोग से ही आरोग्य-प्राप्ति व तृप्ति होती है। कहा भी है- --- "क्रिया ही फलदायी है, सिर्फ ज्ञान फलदायी नहीं बन सकता। स्त्री, भक्ष्य और भोग को जानने मात्र से कोई उसके सुख का अनुभव नहीं कर पाता है।"----- तैरने की क्रिया में निष्णात होने पर भी यदि व्यक्ति अपने हाथ पैर नहीं हिलाये तो वह व्यक्ति नदी में डूब ही जाता है। चारित्र से हीन ज्ञानी की भी यही हालत होती है। दशाश्रुतस्कन्ध की चूणि में भी कहा है जो प्रक्रियावादी है, वह भव्य हो या अभव्य, परन्तु निश्चय से कृष्णपाक्षिक है। क्रियावादी तो निश्चय से भव्य ही होता है और निश्चय से शुक्ल• पाक्षिक होता है। वह समकिती हो या असमकिती, एक पुद्गलपरावर्त के भीतर अवश्य सिद्धिपद प्राप्त करता है, अतः क्रिया करना श्रेयस्कर है। ज्ञानरहित क्रिया भी फलदायी नहीं होती है। कहा भी है अज्ञान के द्वारा जो कर्मक्षय होता है वह मंडूक चूर्ण की भांति समझना चाहिए। तालाब आदि सूख जाने पर मृत मेंढ़क के कलेवर के जितने टुकड़े हो जाते हैं, उन पर पानी आदि पड़ने पर उतने ही नये मेंढ़क पैदा होते हैं। यानी अज्ञानता से थोड़े कर्मों का क्षय होता है और सम्यग्ज्ञान नहीं होने की वजह से अज्ञानी कई अधिक कर्मों का बंधन करता है। उससे भवभ्रमण बढ़ जाता है। सम्यग्ज्ञान युक्त किया मंडूक के चूर्ण की राख समान समझनी चाहिए। अर्थात् सम्यक्रिया से भव का अन्त ही हो जाता है। . "अज्ञानी व्यक्ति करोड़ों वर्षों के तप-जप द्वारा जितने कर्मों का क्षय करता है, उतने कर्म मन, वचन और काया की गुप्ति से गुप्त ज्ञानी श्वास मात्र में खपा देता है।" इसी कारण तामली और पूरण आदि तापस अत्यन्त तप-क्लेश सहने पर भी ईशानेन्द्र और चमरेन्द्रपने के अल्प फल को ही प्राप्त कर सके। श्रद्धारहित सिर्फ ज्ञान से अंगारमर्दकाचार्य की तरह सम्यक्रिया में प्रवृत्ति नहीं होती है। कहा भी है-- ज्ञानरहित पुरुष की क्रिया निष्फल है, क्रियारहित पुरुष का ज्ञान निष्फल है और श्रद्धारहित पुरुष का ज्ञान और क्रिया दोनों निष्फल हैं। ज्ञानरहित पुरुष अंधे के समान है। क्रियारहित पुरुष पंगु के समान है और श्रद्धारहित पुरुष गलत रास्ते पर चलने की इच्छा रखने वाले पुरुष के समान है। ऐसे तीनों पुरुष अन्तराय रहित अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकते। ____ उपर्युक्त दृष्टान्त के अनुसार ज्ञान, दर्शन और चारित्र का सुभग संयोग प्राप्त होने पर ही मोक्ष की प्राप्ति सम्भव है। अतः इन तीनों की पाराधना के लिए उद्यम करें, यही तात्पर्य है।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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