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________________ श्रावक जीवन-दर्शन / ११३ आदि की साक्षी में कहना चाहिए कि " आपके पुण्य के लिए इतने दिनों में इतना धन खर्च करूंगा, उसकी प्राप श्रनुमोदना करो ।” इस प्रकार कहने के बाद निश्चित समय-मर्यादा के भीतर उतना धन खर्च कर देना चाहिए । हाँ, वह बोली हुई रकम माता-पिता आदि के नाम से ही खर्च करनी चाहिए, अपने नाम से नहीं; अन्यथा पुण्यकार्यों में भी चोरी का दोष लगता है । पुण्यकार्य में चोरी आदि करने से तो मुनिजन को भी हीन गति मिलती है । कहा भी है"जो साधु तप, व्रत रूप आचार और भाव की चोरी करता है, वह किल्बिषक देवायु का बन्ध करता है ।' मुख्यतया धर्मव्यय की रकम साधारण ही रखनी चाहिए । रकम साधारण रखने से जहाँ जिस क्षेत्र में आवश्यकता हो वहाँ उस रकम का उपयोग हो सकता है । सात क्षेत्रों में जो क्षेत्र कमजोर हो, उसमें धन व्यय करने से अधिक लाभ होता है । कोई श्रावक कमजोर हो तो उसे, जो उस धन से सहायता की जाय तो वह श्रावक आश्रय मिल जाने से धनवान बनने पर सातों क्षेत्रों की वृद्धि कर सकता है । लोक में भी कहा है "हे राजेन्द्र ! तुम दरिद्र व्यक्ति का पोषण करो, समृद्ध का नहीं । रोगी व्यक्ति के लिए औषध पथ्य है, नीरोग को औषध से क्या प्रयोजन है ?" इसी कारण प्रभावना, संघ की पहरामणी, सम्यक्त्व ग्रहण ( चतुर्थव्रत प्रादि) की खुशहाली में संघ में बाँटे जाते लहारणो लड्डु यादि करनी हो तो निर्धन साधर्मिकों को विशिष्ट वस्तु अर्पित करना ही योग्य है, अन्यथा धर्म की अवज्ञा का दोष आता हैं । अनुकूलता हो तो धनवान साधर्मिक की अपेक्षा निर्धन साधर्मिक को विशेष देना चाहिए । अगर ऐसा न बन सके तो सबको समान देना, परन्तु निर्धन को कम न देना । ऐसा सुना जाता है कि यमुनापुर में ठाकुर जिनदास ने सम्यक्त्वमोदक क देते वक्त समृद्ध श्रावकों के मोदक में एक-एक स्वर्ण मोहर और निर्धन श्रावकों के मोदक में दोदो स्वर्णमोहरें डाली थीं । पिताआदि तथा पुत्र आदि को एक दूसरे लिए पुण्यार्थ धन का व्यय करना हो तो प्रथम से ही करना योग्य है । क्योंकि पता नहीं किसकी कब और किस प्रकार • मृत्यु होगी ? जो धर्मकार्य में खर्च करने के लिए निश्चित किया हो उतना अलग ही खर्चना चाहिए, परन्तु अपने दैनिक भोजन, दान आदि कृत्यों में नहीं गिनना चाहिए, क्योंकि इससे धर्मस्थान में व्यर्थ ही दोष भाता है । ऐसा होने पर भी जो लोग यात्रा के लिए इतना द्रव्य खचूंगा - इस प्रकार निर्णय कर उसी रकम में से खाना-पीना, गाड़ी-भाड़ा, प्रेषरण आदि का खर्च करते हैं उन मूढ लोगों की क्या गति होगी ? यात्रादि के लिए जितना द्रव्य निश्चित किया हो वह द्रव्य देव आदि का द्रव्य हो गया, अतः उसका अपने भोजन आदि में उपयोग करने से देव आदि के द्रव्य के उपयोग का दोष कैसे नहीं लगेगा ?
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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