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________________ श्राविषि/११४ इसी प्रकार अज्ञानता अथवा गलतफहमी से कभी कुछ देवादिद्रव्य का उपयोग हो गया हो तो उसकी आलोचना के रूप में, जितने देवद्रव्य का उपभोग हो गया हो अन्दाज से उतनी या उससे अधिक रकम देवद्रव्य, ज्ञानद्रव्य आदि में डाल देनी चाहिए। जीवन की अन्तिम अवस्था में तो देवद्रव्य आदि का चुकारा खास करके करना चाहिए। अपनी शक्ति अधिक न हो तो धर्मक्षेत्र में दूसरे धर्मकार्यों में चाहे कम खर्च करें परन्तु किसी भी प्रकार का ऋण तो नहीं रखना चाहिए और खास करके देव आदि के द्रव्य ऋण तो चुका ही देने चाहिए। ग्रन्थकार ने कहा भी है विवेकी पुरुषों को एक क्षण भी ऋण नहीं रखना चाहिए तो फिर अति भयंकर देवादि द्रव्य का ऋण तो कैसे रखा जाए ? अतः बुद्धिमान् पुरुष को सर्वत्र विवेक से काम लेना चाहिए। कहा भी है जिस प्रकार कामधेनु गाय प्रतिपदा के चन्द्र को नेवला नकुली वनस्पति को, हंस पानी में रहे दूधं को और पक्षी चित्रा बेल को जानता है, उसी प्रकार बुद्धिमान पुरुष सूक्ष्म-धर्म को जानते हैं । अब इस विषय के अधिक विस्तार की आवश्यकता नहीं है । अब मूल गाथा के उत्तरार्द्ध की व्याख्या करेंगे * पच्चक्खाण विधि * जिनपूजा करने के बाद ज्ञानादि पंचाचारों का दृढ़ता से पालन करने वाले गुरु के पास जाकर पहले जो स्वयं पच्चक्खाण धारण किया हो वह अथवा उसमें विशेष मिलाकर गुरु-मुख से पच्चक्खाण लेना चाहिए ( ज्ञानादि पाँच प्राचारों की विशेष व्याख्या ग्रन्थकार के द्वारा विरचित 'प्राचारप्रदीप' ग्रन्थ से समझ लेनी चाहिए।) पच्चक्खाण तीन की साक्षी में किया जाता है-आत्मसाक्षिक, देवसाक्षिक और गुरुसाक्षिक। जिनमन्दिर में देववन्दन अथवा स्नात्र महोत्सव के दर्शन, धर्मदेशना आदि के लिए आये हुए सद्गुरु के पास वन्दनापूर्वक पच्चक्खाण लेना चाहिए। मन्दिर में न हो तो उपाश्रय में जाकर मन्दिर की विधि के अनुसार तीन बार निसीहि और पांच प्रकार के अभिगम के पालनपूर्वक यथायोग्य विधि से प्रवेश कर देशना से पूर्व अथवा देशना के बाद पच्चीस आवश्यक से द्वादशावर्त वन्दनपूर्वक पच्चक्खाण, ग्रहण करना चाहिए। 5 गुरुवन्दन का फल 5 • गुरुवन्दन का महान् फल है। कहा भी है "गुरुवन्दन से प्रात्मा नीचगोत्र कर्म का क्षय करती है, उच्च गोत्र कर्म का बन्ध करती है और मोहनीय कर्म की ग्रन्थि को आत्मा शिथिल करती है।" कृष्ण महाराजा ने गुरुवन्दन के फलस्वरूप और उसके साथ ही सातवीं नरक का बांधा हुमा मायुष्य तीसरी नरक का कर दिया ।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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