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________________ श्राद्धविधि/११२ जिनमन्दिर में पूजा करने वाले का योग न हो तो सभी लोगों को वस्तु-स्थिति कहकर फिर अपने हाथों से प्रभु पर चढ़ाये । ऐसा न करे तो झूठी प्रशंसा कराने का दोष लगता है। गहचैत्य की नैवेद्य आदि सामग्री माली को वेतन के रूप में नहीं देनी चाहिए। हाँ, पहले से ही नैवेद्यपूर्वक मासिक वेतन तय किया हो तो कोई दोष नहीं है। मुख्यतया तो वेतन अलग से ही देना चाहिए। गहचैत्य की नैवेद्य आदि सामग्री मुख्य जिनमन्दिर में रख देनी चाहिए। अन्यथा गृहचैत्य की सामग्री से ही प्रभु पूजा गिनी जायेगी, स्वद्रव्य से नहीं। इस प्रकार करने से तो अनादर-अवज्ञा मादि दोष उत्पन्न होते हैं। अपने कुटुम्ब के निर्वाह के लिए बहुत-सा धन व्यय करने वाले गृहस्थ के लिए ऐसा करना उचित नहीं है। मुख्य जिनमन्दिर में प्रभु-पूजा भी स्वद्रव्य से ही करनी चाहिए, न कि स्वगृहत्य में रखे गये नैवेद्य आदि सामग्री के व्यय से उत्पन्न द्रव्य से या देव-सम्बन्धी पुष्प आदि से; इनसे पूजा करने से पूर्वोक्त सभी दोष लगते हैं। मुख्य जिनमन्दिर में आयी हुई नैवेद्य-चावल आदि सामग्री का अपनी ही वस्तु की तरह अच्छी तरह से रक्षण करना चाहिए और योग्य भाव से उसे बेचना चाहिए। उसे जैसे-तैसे नहीं रखनी चाहिए । जिनमन्दिर सम्बन्धी नैवेद्य आदि सामग्री की अच्छी तरह से व्यवस्था न की जाय तो देवद्रव्य का विनाश आदि दोष लगते हैं। - हर तरह से देवद्रव्य के रक्षण आदि की चिन्ता करने पर भी यदि चोर, अग्नि आदि के उपद्रव से देवद्रव्य का विनाश हो जाय तो भी व्यवस्था करने वाला निर्दोष ही गिना जाता है, क्योंकि अवश्यम्भावी घटनाओं को कोई टाल नहीं सकता। देव-गुरु की भक्ति, तीर्थयात्रा, संघपूजा, सार्मिक वात्सल्य, स्नात्रपूजा, प्रभावना, ज्ञानलेखन, वाचना आदि कार्यों में यदि अन्य किसी व्यक्ति की आर्थिक मदद ली जाय तो चार-पाँच व्यक्तियों के समक्ष ही ग्रहण करनी चाहिए और उस धन-व्यय के समय गुरु-संघ आदि के समक्ष स्पष्ट कर देना चाहिए , अन्यथा दोष लगता है। __ तीर्थ आदि में पूजा, स्नात्र, ध्वज, पहरामणी आदि अवश्य करने योग्य कार्यों में दूसरों का धन नहीं डालना चाहिए। यानी किसी ने तीर्थ में प्रभुभक्ति में खर्च करने के लिए जो धन दिया हो वह इन कार्यों में नहीं लगाना चाहिए। ये कृत्य तो यथाशक्ति स्वयं ही करने चाहिए तथा दूसरे के धन को महापूजा, भोग, अंगपूजा आदि में सभी की साक्षी में अलग ही व्यय करना चाहिए। यदि बहुत लोग मिलकर तीर्थयात्रा, सार्मिक वात्सल्य, संघ-पूजा आदि करते हों तो जिसका जितना भाग हो उसे सभी की उपस्थिति में स्पष्ट कर देना चाहिए। ऐसा न करे तो दूसरों के द्वारा पुण्य कार्य में किये गये अधिक धन-व्यय की चोरी करने का दोष लगता है। माता-पिता आदि अन्तिम अवस्था में हों तो उनकी जागृति (होश) में, गुरु तथा सार्मिक
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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