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________________ श्राद्धविषि/१०२ निष्पुण्यक इस प्रकार सोच ही रहा था कि उसके दुर्भाग्य के अनुसार लौटते समय प्रचण्ड पवन से उसके वाहन के सैकड़ों टुकड़े हो गये। भाग्योदय से निष्पुण्यक को फलक हाथ लग गया और वह किसी भी प्रकार से समुद्र तट पर आ पहुंचा। वह गाँव के ठाकुर के वहाँ रहा। एक दिन चोरों ने उस ठाकुर को लूट लिया। ठाकुर का पुत्र समझकर चोर निष्पुण्यक को बांधकर अपनी पल्ली में ले आये। उसी दिन दूसरे पल्लीपति ने उस पल्ली को नष्ट कर दिया। भाग्यहीन समझकर उस पल्लीवालों ने उसे बाहर निकाल दिया। कहा भी है ___"सूर्य की किरणों के ताप से पीड़ित होकर गंजे सिर वाला (केशरहित पुरुप) मनुष्य बिल्ववृक्ष की छाया में गया, परन्तु वहाँ पहुँचने के साथ ही आवाज करता हुआ बिल्व का फल उसके मस्तक पर गिरा। सचमुच, प्रभागा व्यक्ति जहाँ भी जाता है। उसको आपत्ति आ ही जाती है।" ___ इस प्रकार 999 बार तस्कर, जल, अग्नि, स्वचक्र, परचक्र, मरकी आदि अनेक उपद्रवों के होने से निष्कासित निष्पुण्यक भयंकर दुःख को सहन करता हुआ एक महा अटवी में पहुंचा। वहाँ पाकर उसने एकाग्रतापूर्वक सेलक यक्ष की आराधना की। अपने दुःख के निवेदनपूर्वक उसने इक्कीस उपवास किये । यक्ष प्रसन्न हुमा और बोला, "संध्या के समय मेरे सामने एक हजार स्वर्ण चन्द्रक वाला मोर नृत्य करेगा अतः तुम प्रतिदिन उसके गिरे हुए स्वर्ण-पिच्छों को ग्रहण कर सकोगे।" खुश हुए निष्पुण्यक ने सायंकाल में गिरे हुए कुछ स्वर्ण-पिच्छों को ग्रहण किया। इस प्रकार प्रतिदिन गिरने से उसने नव सौ पिच्छ इकट्ठ किये। एक सौ पिच्छ ही बकाया थे कि वह दुर्भाग्य से प्रेरित होकर सोचने लगा "इसे ग्रहण करने के लिए मुझे कितने दिनों तक जंगल में रहना पड़ेगा, इसके बजाय तो एक ही मुट्ठी के प्रहार से सभी पिच्छों को ग्रहण कर लू।" इस प्रकार उस दिन नाचते हुए मोर को मुद्री के प्रहार से ग्रहण करने के लिए जैसे ही वह तयार हुआ, उसी समय वह मोर कौआ बनकर उड़कर चला गया और पहले ग्रहण किये हुए पिच्छ भी नष्ट हो गये। कहा भी है-"देव की मर्यादा का उल्लंघन करके जो भी कार्य किया जाता है, वह फलदायी नहीं होता। जैसे कि--जलपान के लिए चातक द्वारा ग्रहण किया हुआ सरोवर का जल गले में रहते हुए छिद्र में से बाहर निकल जाता है।" . "मुझे धिक्कार हो, मैंने व्यर्थ ही उत्सुकता रखी"-इस प्रकार खिन्न बना हुमा वह इधरउधर घूमने लगा। अचानक उसे एक ज्ञानी मुनि दिखाई दिये। मुनि को नमस्कार कर उसने अपने कर्मों के बारे में पूछा। ज्ञानी मुनि ने भी उसके पूर्व भव के स्वरूप को बतलाया। इसे सुनकर उसने देवद्रव्य से की गयी आजीविका के पाप का प्रायश्चित्त मांगा। मुनि ने कहा-"तुमने जितने देवद्रव्य का स्वकार्य में उपभोग किया, उससे अधिक प्रदान
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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