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________________ श्रावक जीवन-दर्शन/१०१ इस प्रकार एक-दो भवों के अन्तर से वह सातों नरकों में दो-दो बार उत्पन्न हुआ। उसने एक हजार काकिणी प्रमाण देवद्रव्य का उपभोग किया था। इसलिए उसने सान्तर अथवा निरन्तर कुत्ता, सुअर, भैंस, बकरा, भेड़, हिरण, खरगोश, शंबरमृग, गोदड़, बिल्ला, चूहा, नेवला, गृहकोल, छिपकलो, सर्प, बिच्छू, विष्टा का कृमि, पृथ्वोकाय, अप्काय, तेउकाय, वाउकाय, वनस्पतिकाय, शंख, छीप, जोंक, चींटी, कीड़ा, पतंगा, मक्खी, भ्रमर, मछली, कछुआ, गधा, भैंसा, बैल, ऊँट, खच्चर, घोड़ा, हाथी आदि योनियों में एक-एक हजार बार उत्पन्न होकर लाखों भवों तक संसार में भ्रमण किया। प्रायः सभी भवों में शस्त्रघात आदि महाव्यथा को प्राप्त कर मरण प्राप्त किया। उसके बाद बहुत-सा पाप क्षीण हो जाने पर वसन्तपुर नगर में करोड़पति वसुदत्त सेठ की पत्नी वसुमती की कुक्षि में पुत्र के रूप में पैदा हुआ। उसके गर्भ में आने के साथ ही वसुदत्त सेठ का सभी द्रव्य नष्ट हो गया। पुत्र के रूप में उत्पन्न होने के साथ ही वसुदत्त सेठ की मृत्यु हो गयी। उसकी पाँच वर्ष की आयु में वसुमती की भी मृत्यु हो गयी । इस कारण लोगों ने उसका 'निष्पुण्यक' नाम रखा और वह रंक की तरह अत्यन्त कठिनाई से धीरे-धीरे बड़ा होने लगा। एक दिन उसका मामा स्नेह से उसे अपने घर ले गया परन्तु दुर्भाग्य से उसी रात्रि में चोरों ने उसके घर को लूट लिया। इस प्रकार वह जिस किसी के घर एक दिन भी रहता था उसके घर में चोरी, लूटपाट तथा अग्नि आदि के उपद्रव हो जाते थे। इस प्रकार उसके आगमन के साथ ही उपद्रव होने के कारण लोग उसे 'यह तो कबूतर का बच्चा है ? जलती भेड़ों की पंक्ति है ? या मूर्तिमान उपद्रव है' इत्यादि कहकर उसकी तीव्र निन्दा करने लगे। अपनी निन्दा से परेशान होकर वह अपने देश को छोड़कर अन्यत्र चला गया। __ वह निष्पुण्यक क्रमशः ताम्रलिप्ति नगरी में पहुंचा। वहाँ पर विनयन्धर श्रेष्ठी के घर नौकरी के लिए रहा परन्तु उसी दिन उसका घर जल गया। सेठ ने उसे पागल कुत्ते की तरह अपने घर से बाहर निकाल दिया। किंकर्तव्यविमूढ़ बना हुआ वह अपने दुष्कर्म की निन्दा करने लगा। "सभी जीव स्वाधीन होकर कर्म बाँधते हैं परन्तु उन कर्मों के उदय में पराधीन बन जाते हैं । व्यक्ति अपनी इच्छानुसार वृक्ष पर चढ़ता है, परन्तु पतन के समय वह पराधीन हो नीचे गिर पड़ता है।" 'शायद अन्य स्थान में मेरा भाग्य उघड़ जाय'-इस प्रकार विचार कर वह समुद्र तट पर चला गया। उसी दिन धनावह सेठ की नौकरी स्वीकार कर वाहन में चढ़ा और क्रमशः क्षेमकुशल अन्य द्वीप पर पहुंच गया। उसने सोचा-"मेरा भाग्य उघड़ गया है क्योंकि वाहन में चढ़ने के बाद भी वाहन टूटा नहीं अथवा दुर्भाग्य अपने कर्तव्य को भूल गया होगा। भगवान करे उसे लौटते समय भी याद न पाये तो अच्छा ।"
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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