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________________ श्रावक जीवन-दर्शन/१०३ करने से और देवद्रव्य की रक्षा व वृद्धि से तुम्हारे दुष्कर्म का नाश होगा। इसके फलस्वरूप तुम्हें सभी प्रकार को भोग-ऋद्धि और सुख-लाभ भी होगा।" ___. ज्ञानी गुरु के वचन सुनकर निष्पुण्यक ने अभिग्रह किया कि जब तक पूर्वभव में उपभोग किये देवद्रव्य की हजार गुणी रकम मैं देवद्रव्य में जमा नहीं करूंगा, तब तक अपने आहार-वस्त्र के निर्वाह के सिवाय अन्य कुछ भी धन का संग्रह नहीं करूंगा-इस अभिग्रह के साथ उसने श्रावकधर्म भी स्वीकार किया। इसके बाद वह जो कुछ भी व्यवसाय करने लगा, उसमें अधिक-अधिक कमाने लगा और देवद्रव्य की रकम की भरपाई करने लगा। पूर्वभव में उसने देवद्रव्य की एक हजार काकिणी का उपयोग किया था, इस भव में उसने थोड़े ही दिनों में दस लाख काकिणी देवद्रव्य में प्रदान की। __ देवद्रव्य के ऋण से मुक्त बनकर बहुत से द्रव्य का उपार्जन कर वह अपने नगर में पाया और सभी श्रेष्ठियों में मुख्य बनने से वह राजा को भी मान्य हुआ। उसके बाद अपनी सर्वशक्ति से स्वकृत तथा अन्यकृत जिनमन्दिरों की सभी प्रकार से देखभाल करने लगा। .. . प्रतिदिन महापूजा, प्रभावना एवं यथाशक्ति देवद्रव्य के रक्षण-वृद्धि आदि के उपायों द्वारा उत्पन्न पुण्य के फलस्वरूप उसने तीर्थकर नामकर्म का बंध किया। क्रमशः दीक्षा स्वीकार की और गीतार्थ बनकर यथायोग्य धर्मदेशना आदि द्वारा बीस स्थानक के प्रथम जिनभक्तिस्थानक की सुन्दर आराधना करके जिननामकर्म निकाचित किया। वहाँ से समाधि-मृत्यु प्राप्त कर सर्वार्थसिद्ध विमान में दीर्घकालीन देवायु को पूर्ण कर महाविदेह क्षेत्र में तीर्थंकर पद को प्राप्त कर शाश्वत मोक्ष पद प्राप्त किया। 5 ज्ञान और साधारण द्रव्य के उपभोग पर दृष्टान्त 5 भोगपुर नगर में चौबीस करोड़ स्वर्णमुद्राओं का अधिपति धनावह नाम का सेठ रहता था। उस सेठ के धनवती नाम की पत्नी थी। उस दम्पत्ति के पुण्यसार और कर्मसार नाम के दो पुत्र युगल के रूप में पैदा हुए। एक बार धनावह श्रेष्ठी ने किसी नैमित्तिक से पूछा-"मेरे दोनों पुत्रों का भविष्य कैसा है ?" नैमित्तिक ने कहा-"कर्मसार जड़ प्रकृति वाला एवं अप्राज्ञ होने से विपरीत बुद्धि के कारण बहुत-सा प्रयत्न करने पर भी कुछ भी द्रव्य प्राप्त नहीं कर पायेगा। पूर्व के धन को भी खोने से और नया धन उपार्जन नहीं होने से वह बहुत काल तक दारिद्रय और दासत्व आदि का दुःख प्राप्त करेगा। "पूर्व के सर्व द्रव्य और नवीन उपाजित द्रव्य की बार-बार हानि से पुण्यसार भी इसी प्रकार दुःखी होगा, परन्तु वाणिज्य आदि कला में वह कुशल होगा। दोनों को वृद्धावस्था में धन, सुख और सम्पत्ति की अभिवृद्धि होगी।"
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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