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________________ श्राद्धविधि/१०० "जिनप्रवचन की वृद्धि और ज्ञानादि गुणों को प्रकाशित करने वाले देवद्रव्य की जो वृद्धि करता है, वह यावत् तीर्थंकर पद को प्राप्त करता है। देवद्रव्य की वृद्धि अर्थात् पहले के देवद्रव्य का रक्षण करना और नवीन प्राप्त करना।" श्राद्धदिनकृत्य प्रकरण में 'तित्थयर' पद की वृत्ति में लिखा है कि देवद्रव्य की वृद्धि करने वाले के दिल में अरिहन्त पर अत्यन्त ही भक्ति होती है, जिससे वह तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध · करता है। * देवद्रव्य की वृद्धि कैसे करें ? * पन्द्रह प्रकार के कर्मादान में देवद्रव्य की रकम न रोकें तथा सही व्यापार आदि से विधिपूर्वक देवद्रव्य की वृद्धि करें। ___कहा है-"जिनेश्वर की आज्ञा के विरुद्ध देवद्रव्य की वृद्धि करने वाले भी मोह से मूढ़ अज्ञानी जीव भवसागर में डूबते हैं।" सम्यक्त्व पच्चीसी की टीका में संकाश सेठ की कथा में सोने के आभूषण आदि लेकर ब्याज से देवद्रव्य की रकम देकर देवद्रव्य की वद्धि करने की बात आती है। इसलिए कुछ प्राचार्यों का मत है कि जैनेतर को अधिक मूल्य की वस्तु गिरवी रखकर वह देवद्रव्य की रकम ब्याज से देनी चाहिए । इस प्रकार ब्याज से भी देवद्रव्य की वृद्धि करना उचित ही है। ॐ देवद्रव्य-भक्षण एवं रक्षण पर सागर श्रेष्ठी का दृष्टान्त ॥ साकेतपुर नगर में परमात्मभक्त सागर श्रेष्ठी नाम का श्रावक रहता था । वहाँ अन्य श्रावकों ने सागर श्रेष्ठी को सुश्रावक जानकर देवद्रव्य की व्यवस्था सौंपी और उसे कहा गया कि मन्दिर में काम करने वाले सुथार आदि को उनकी मजदूरी इसमें से देते रहना। ____लोभ के वशीभूत उस सागर श्रेष्ठी ने उस देवद्रव्य में से धान्य, गुड़, घी, तेल, कपड़ा आदि खरीद लिया और सुथार आदि को रोकड़ रुपये न देकर उनके काम के बदले में सस्ते भाव से धान्य, गुड़, घी आदि देने लगा। इसमें जो फायदा होता उसे वह स्वयं रखने लगा। इस प्रकार उसने रुपये के अस्सीवें भाग रूप एक हजार काकिणी का फायदा उठाया। इस प्रकार की प्रवृत्ति से उसने महाघोर पापकर्म का बन्ध किया। उस पाप की आलोचना नहीं करने के कारण वह मरकर समुद्र में जलमानव बना। वहाँ जात्यरत्न के ग्राहकों के द्वारा समुद्र में जलचर जीवों के उपद्रव को दूर करने वाले अंडगोलिक को ग्रहण करने के लिए वह वज्र की घट्टी में पेला गया। इस महाव्यथा से मरकर वह तीसरी नरक भूमि में गया। वेदान्त में भी कहा है-"देवद्रव्य तथा गुरुद्रव्य से होने वाली धन की वृद्धि अच्छी नहीं है, क्योंकि उससे इसलोक में कुलनाश और परलोक में नरकगति की प्राप्ति होती है।" नरक में से निकलकर वह पांच सौ धनूष लम्बा महामत्स्य हमा। किसी म्लेच्छ ने उसे पकड़ा और उसके सभी अंग छेद दिये । अत्यन्त कदर्थनापूर्वक मरकर वह चौथी नरकभूमि में उत्पन्न हुआ।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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