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________________ श्रावक जीवन-दर्शन / १९ प्रश्न – मन, वचन और काया से सर्व सावद्य प्रवृत्तियों का त्याग करने वाले साधु को देवद्रव्य की रक्षा का क्या अधिकार है ? उत्तर -- यदि साधु किसी राजा, मन्त्री आदि से याचना कर घर, हाट, गाँव आदि लेकर देवद्रव्य उत्पन्न करे तब तो तुम्हारे कथनानुसार उसे दोष लगता है । परन्तु किसी भद्रिक जीव द्वारा धर्म आदि के लिए पहले से प्रदत्त द्रव्य अथवा कोई दूसरा देवद्रव्य नष्ट हो रहा है और साधु उसका रक्षण करता है तो इसमें कोई हानि नहीं है, बल्कि सम्यग् प्रकार से जिनाज्ञा की श्राराधना होने से चारित्र की पुष्टि ही है । नया मन्दिर बनवाने का साधु का आचार नहीं है फिर भी बने हुए मन्दिर के शत्रुओं का निग्रह करके भी रक्षण करने में किसी प्रकार का प्रायश्चित्त नहीं है और न ही प्रतिज्ञा भंग है । आगम में भी यही बात कही है " मन्दिर के लिए क्षेत्र, सुवर्णं, चांदी, गाय, बैल, आदि की वृद्धि करने वाले साधु को त्रिकरण योग की शुद्धि कैसे रह सकती है ?" इस प्रश्न का समाधान करते हुए कहते हैं- " मन्दिर निर्माण तथा देवद्रव्य की वृद्धि के लिए साधु स्वयं याचना करे तो उसे चारित्र में दोष लगता है, परन्तु उस देवद्रव्य की कोई चोरी करता हो और वह उसकी उपेक्षा करे तो वहाँ साधु को चारित्र की विशुद्धि नहीं हो सकती । शक्ति होने पर भी जो न रोके तो त्रिकरण की शुद्धि नहीं होती है और वह अभक्ति कहलाती है, अतः साधु को भी देवद्रव्य का विनाश अवश्य रोकना चाहिए।" देवद्रव्य के रक्षण के लिए साधु और संघ दोनों को अपनी ताकत लगानी चाहिए – परन्तु देवद्रव्य की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए । जो नासमझ श्रावक देवद्रव्य का भक्षरण करता है या उसकी उपेक्षा करता है वह पापकर्म से लिप्त बनता है । नासमझ वह है जो बिना सोचे-समझे ही कार्य कर देता है। किसी को बिना सोचे-समझे देवद्रव्य उधार दे और वह डूब जावे अथवा नासमझी के कारण देवद्रव्य से मन्दिर के लिए वस्तु खरीदने में या नौकरों को वेतन आदि में जरूरत से ज्यादा खर्च करे या कम खर्च करके ज्यादा नामे मांडे | "जो श्रावक देवद्रव्य की आय को तोड़ता है, देवद्रव्य में देने का तय कर पीछे से नहीं देता है, देवद्रव्य के नाश की उपेक्षा करता है तो वह भी संसार में परिभ्रमण करता है ।" "जिनप्रवचन एवं ज्ञान दर्शन और चारित्र आदि गुणों की वृद्धि कराने वाला जो देव-द्रव्य है, उसका जो प्राणी भक्षण करता है, वह अनन्त संसारी होता है ।" देवद्रव्य हो तो उसमें से मन्दिर की मरम्मत, महापूजा, सत्कार आदि सम्भव है । वहाँ दर्शन हेतु मुनि भी पधारते हैं। उनसे व्याख्यान - श्रवरण आदि का योग मिलने से जिन प्रवचन की भी वृद्धि होती है, इस प्रकार ज्ञानादि गुरणों की प्रभावना होती है । " जिन प्रवचन की वृद्धि और ज्ञान दर्शन आदि गुणों को प्रकाशित करने वाले देवद्रव्य का जो रक्षरण करता है, वह अल्प संसारी होता है ।"
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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