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________________ श्राद्धविषि/१८ सबसे भयंकर पाशातना है, जो अनन्त संसार का हेतु है। उत्सूत्र प्ररूपणा से सावधाचार्य, मरीचि, जमालि, कूलवालक आदि अनेक जीवों ने अपने संसार को बढ़ाया है। कहा भी है "उत्सूत्र बोलने वाले के बोधि-बीज का नाश होता है और अनन्त संसार की वृद्धि होती है। इसी कारण प्राणान्त आपत्ति में भी धीर पुरुष उत्सूत्र भाषण नहीं करते हैं।" "तीर्थंकर-प्रवचन, श्रुत, गणधर तथा महद्धिक की प्राशातना करने से प्राणी प्रायः अनन्त 'ससारी होता है।" इसी प्रकार देवद्रव्य, ज्ञानद्रव्य, साधारणद्रव्य तथा गुरुद्रव्य-वस्त्र-पात्र आदि का विनाश करने तथा उनकी उपेक्षा करने से भी भयंकर पाशातना होती है। कहा भी है "देवद्रव्य का विनाश, ऋषि-हत्या, प्रवचन की हीलना एवं साध्वी के चौथे व्रत का भंग करना-बोधिलाभ के मूल में आग लगाने के समान है।" यहाँ देवद्रव्य के विनाश से तात्पर्य देवद्रव्य का भक्षण एवं उसकी अवगणना से है। श्रावक दिनकृत्य और दर्शनशुद्धि आदि में कहा है-"जो मोहितमति वाला देवद्रव्य और साधारण द्रव्य को नुकसान पहुंचाता है, वह या तो धर्म को समझता ही नहीं है अथवा नरक गति के आयुष्य का बन्ध कर चुका है।" देवद्रव्य तो प्रसिद्ध ही है। जिनमन्दिर, पुस्तक तथा आपत्तिग्रस्त श्रावकों के उद्धार (सहयोग) के लिए समृद्धिमान श्रावकों ने जो धन इकट्ठा किया हो वह साधारण द्रव्य है। उसका विनाश करना अथवा ब्याज-व्यापार आदि के द्वारा उसका उपभोग करना ही साधारण द्रव्य का नाश कहलाता है । कहा भी है-"देवद्रव्य और दो भेद वाले मन्दिर सम्बन्धी लकड़ी, पत्थर, ईंट आदि के विनाश को देखकर साधु भी यदि उपेक्षा करें तो वे भी अनन्त संसारी होते हैं।" __ मन्दिर-सम्बन्धी लकड़ी, पत्थर, ईंट आदि देवद्रव्य के दो भेद हैं-(१) योग्य और (२) अंतीत भाव । मन्दिर हेतु लायी हुई नवीन सामग्री 'योग्य' कहलाती है और मन्दिर में उपयोग लिये हुए पत्थर प्रादि पड़े हुए हों तो वह सामग्री 'अतीत भाव' कहलाती है। अथवा मूल और उत्तर इस प्रकार से दो भेद हैं। स्तम्भ, कुभिका आदि मूल कहलाते हैं और छत आदि उत्तर कहलाते हैं। अथवा स्वपक्ष और परपक्ष ये दो भेद हैं । श्रावक आदि कृत विनाश स्वपक्ष और अन्य मिथ्यात्वी आदि कृत परपक्ष कहलाता है । इस प्रकार अनेक रीति से दो भेद हो सकते हैं। मूल गाथा में 'अपि' शब्द का अध्याहार होने से श्रावक तो क्या सब सावद्य से निवृत्त साधु भी यदि देवद्रव्य के विनाश की उपेक्षा करे तो तीर्थंकर आदि ने उसे अनन्त संसारी बताया है।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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