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________________ श्रावक जीवन-दर्शम/८७ आपने अपने जीवन की भी उपेक्षा कर दी। इन्द्र ने आपकी जो प्रशंसा की थी, वह योग्य ही है, परन्तु मैं उस प्रशंसा को सहन नहीं कर सका और इसी कारण आपको जंगल में लाकर आपकी प्रतिज्ञा की परीक्षा की है। हे बुद्धिनिधान ! आपकी दृढ़ता से मैं प्रसन्न हूँ, अतः जो कुछ मांगना हो वह एक . वाक्य में विचार करके मांगो।" धर्मदत्त ने कहा-"जब मैं तुम्हें याद करूं और जो कार्य कहूँ, उसे करना।" __ "सचमुच, यह अद्भुत भाग्य का निधि है, क्योंकि इसने एक ही वाक्य से मुझे वश में कर लिया है।" इस प्रकार विचार कर उस देव ने धर्मदत्त के वचन को स्वीकार कर तुरन्त विदाई ली। "अब मुझे अपने राजभवन की प्राप्ति कैसे होगी?' इस प्रकार जब धर्मदत्त विचार करता है, उसी समय वह अपने आप को अपने राजभवन में पाता है। धर्मदत्त ने सोचा-"अहो! मैंने उस देवता को याद भी नहीं किया तो भी उसने अपनी शक्ति से यहाँ रख दिया। सचमुच, प्रसन्न हुए देवता के लिए यह कौनसी बड़ी बात है !" अपने संगम से धर्मदत्त ने अपने माता-पिता और परिजनों को खुश किया। उस दिन भी उसने पारणे की उत्सुकता रखे बिना विधिपूर्वक जिनेश्वर भगवन्त की पूजा की। अहो ! धर्मनिष्ठ पुरुषों का आचरण कितना महान् होता है ! इधर पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर दिशा में आये हुए चार राजाओं की बहुत से पुत्रों के ऊपर क्रमशः बहुमान्य पुत्री के रूप में वे चारों कन्याएँ पैदा हुईं। ___ क्रमशः उनके नाम धर्मरति, धर्ममति, धर्मश्री और धर्मिणी थे। वे यथार्थ नाम वाली थीं। वे तरुण अवस्था को प्राप्त हुई तब वे चार रूप धारण करने वाली लक्ष्मीदेवी की तरह सुशोभित एक बार उन कन्याओं ने सुकृत के स्थानभूत जिन मन्दिर में प्रवेश किया और वहाँ पर जिनेश्वर भगवन्त की प्रतिमा को देखकर उन्हें जातिस्मरण ज्ञान हुअा। उसी समय उन्होंने प्रभु की पूजा के बिना भोजन न करने का नियम ले लिया और प्रतिदिन जिन भक्ति को करती हुई उन्होंने संकल्प कर लि व में परिचित धन्यदेव के साथ ही इस जीवन में सम्बन्ध करेंगी। इस बात को जानकर पूर्व देश के राजा ने अपनी पुत्री धर्मरति के लिए श्रेष्ठ स्वयंवर की रचना की और उसने सभी राजाओं को बुलाया। स्वयंवर हेतु राजधर राजा को पुत्र सहित आमंत्रण दिया था, परन्तु धर्मदत्त वहाँ गया नहीं। उसने सोचा, "जिस कार्य की सफलता में संदेह हो, वहाँ मेधावी पुरुष क्यों दौड़े ?" - इधर विचित्रगति नाम का विद्याधर राजा अपने पिता मुनि के उपदेश से व्रत का इच्छुक बना, उसके एक ही पुत्री थी। उसने प्रज्ञप्ति देवी को पूछा, "मेरी पुत्री का पति कौन होगा, और इस राज्य को कौन चलायेगा ?" प्रज्ञप्ति देवी ने कहा, "तुम अपनी पुत्री और राज्य धर्मदत्त को देना, वह हर तरह से योग्य है।" राजा खुश हो गया और धर्मदत्त को बुलाने के लिए वह राजपुर पाया।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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