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________________ बाढविषि/८६ धर्मदत्त का धर्म, इसके गुणों का भी गुणाकार करने लगा। तीन वर्ष की उम्र में उसने प्रभु की पूजा बिना भोजन नहीं करने का अभिग्रह कर लिया। । धर्मदत्त ने लेखन-पाठन आदि सभी ७२ कलाएँ अत्यन्त ही सहजतया प्राप्त कर ली। अहो ! पुण्य का प्रभाव अत्यन्त ही चमत्कारी है। 'पुण्यानुबन्धी पुण्य से परभव में भी पुण्य की प्राप्ति सहज होती है इस बात को जानकर उसने सद्गुरु के पास में गृहस्थ धर्म स्वीकार कर लिया। 'प्रविधि से की गई पूजा का पूर्णफल नहीं होता है'-अतः वह विधिपूर्वक त्रिकाल देवपूजा और गृहस्थ के योग्य समाचारी का पालन करने लगा। सतत अमध्यम (उत्कृष्ट) परिणाम वाला होते हुए भी धर्मदत्त ने क्रमश: मध्यम (यौवन) वय को प्राप्त किया। उस समय मोटे गन्ने की तरह वह सविशेष माधुर्य वाला हुआ। ___ एक दिन किसी विदेशी व्यक्ति ने सुन्दर लक्षणों से युक्त इन्द्र के घोड़े जैसा एक घोड़ा धर्मदत्त हेतु राजा को भेंटस्वरूप दिया। 'जगत् में यह घोड़ा भी मेरी तरह असाधारण है।' इस प्रकार देखकर समान वस्तु का योग करने की इच्छा से पिता की आज्ञा से वह धर्मदत्त उस घोड़े पर चढ़ गया। अहो ! मोह कैसा विचित्र है? चढने के साथ ही वह घोडा.अपने अतिशय वेग को प्रकाश में दिखाता है इन्द्र के अश्व को मिलने की उत्सुकता न हो, इस प्रकार पवनं गति से आकाश में उड़ने लगा। क्षण भर में ही वह अदृश्य हो गया और हजारों योजन दूर भयंकर और लम्बे जंगल में धर्मदत्त को छोड़कर कहीं चला गया। ___सर्प के फूत्कार, बन्दरों की बूत्कार, सूअर के धुत्कार, चीतों के चीत्कार, चमरी गायों के भोंकार, रोज के त्राट्कार और सियारों के फेत्कार से अत्यन्त भयंकर उस जंगल में भी प्रकृति से ही निर्मय वह धर्मदत्त लेश भी नहीं डरा। सत्पुरुष आपत्ति में अत्यन्त धैर्य रखते हैं .मौर संपत्ति में कभी उछलते नहीं हैं। शून्य वन में भी प्रशून्य हृदय वाला वह धर्मदत्त जंगल में भी अपने भवन के उपवन (उद्यान) की भाँति रहा। मुक्तविहारी हाथी की तरह जंगल में भी वह एकदम स्वस्थ रहा । परन्तु जिनप्रतिमा की पूजा का योग न मिलने के कारण उसके दिल में दुःख था। उसने उस दिन पाप को नष्ट करने वाला निर्जल उपवास किया। शीतल जल और विविध फलों का योग होने पर भी भूख और प्यास को सहन करते हुए उसने तीन उपवास कर लिये। अहो ! अपने नियम के पालन में धर्मदत्त की कितनी दृढ़ता थी। ___लू लगने से अत्यन्त मुर्भायी हुई फूलमाला की भांति उसका देह अत्यन्त म्लान होने पर भी उसका मन उतना ही प्रसन्न था। उसी समय एक देव प्रगट हुमा और बोला, अहो ! आपने दुःसाध्य ऐसे नियम को पाला है। अहो ! आपका कितना धर्य! अपने नियम की रक्षा के लिए हुआ,मानों
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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