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________________ श्राद्धविषि / ८८ वहाँ धर्मदत्त के मुख से धर्मरति कन्या के स्वयंवर के समाचार को जानकर, वह विचित्रगति धर्मदत्त को साथ में लेकर देव की भाँति अदृश्य होकर धर्मरति के स्वयंवर मंडप में कौतुक से गया । आश्चर्यकारी उस स्वयंवर मंडप में अभी तक कन्या ने किसी को भी स्वीकार नहीं किया था, इस कारण लूटे गये की तरह वे सब राजा निस्तेज दिखाई देने लगे । 'अब क्या होगा ? ' - इस प्रकार विचार कर सभी लोग आकुल-व्याकुल हो गये थे । उसी समय 'जिस प्रकार प्रातः काल ग्ररुण-सूर्य को प्रगट करता है'-- उसी प्रकार उस विचित्रगति विद्याधर ने धर्मदत्त को प्रगट किया । धर्मदत्त को देखते ही धर्मरति एकदम खुश हो गयी और जिस प्रकार रोहिणी वसुदेव को वरती है, उसी प्रकार उसने धर्मदत्त के गले में वरमाला डाल दी । सचमुच, पूर्वभव का प्रेम और द्वेष जीव को स्वयं उचित कृत्य के लिए प्रेरणा करता है । शेष तीन दिशाओं के राजा भी वहाँ आये हुए थे । विद्याधर के विमानों द्वारा उन्होंने अपनी पुत्रियों को वहाँ बुलवा लिया और खुश होकर उन्हें धर्मदत्त को प्रदान कर दीं। विद्याधर के द्वारा किये गये दिव्य उत्सव में धर्मदत्त ने उन चारों कन्याओं के साथ पाणिग्रहण किया । उसके बाद विचित्रगति, अन्य सब राजानों के साथ धर्मदत्त को वैताढ्य पर्वत पर ले गया और वहाँ विविध महोत्सवपूर्वक धर्मदत्त के लिए अपनी पुत्री और राज्य प्रदान कर दिया । उसी समय विद्याधर के द्वारा दी गई एक हजार विद्याएँ धर्मदत्त को सिद्ध हो गईं। विचित्र गति प्रादि विद्याधरों के द्वारा दी गई पाँच सौ कन्याओं के साथ धर्मदत्त ने लग्न किया और उनके साथ अपने नगर में प्रवेश किया । वहाँ भी अन्य राजाओं की पाँच सौ कन्याओं के साथ उसका विवाह हुआ । उसके बाद राजधर राजा ने आश्चर्यकारी उत्सवों के द्वारा अपनी समस्त राज्य सम्पत्ति वृद्धि के लिए अपने सद्गुणी पुत्र धर्मदत्त को सौंप दी और चित्रगति ने सद्गुरु के पास अपनी पटरानी के साथ दीक्षा स्वीकार कर ली । राज्य पर शासन करने के लिए पुत्र सुयोग्य होने पर कौन व्यक्ति अपना आत्म-कल्याण नहीं करेगा ? अर्थात् अवश्य करेगा । धर्मदत्त को पूछकर विचित्रगति ने भी दीक्षा स्वीकार कर ली और अनुक्रम से चित्रगति, विचित्रगति, राजधर और प्रीतिमती रानी ने मोक्ष प्राप्त किया । धर्मदत्त राजा ने लीला मात्र से ही हजारों राजानों को जीत लिया और वह दस हजार रथ, दस हजार हाथी, एक लाख घोड़े और एक करोड़ पैदल सैनिकों का अधिपति बन गया । अनेक प्रकार की विद्याओं का अभिमान रखने वाले हजारों विद्याधर भी धर्मदत्त के अधीन हो गये । इस प्रकार लम्बे समय तक उसने इन्द्र की तरह विशाल साम्राज्य का भोग किया । • स्मृतिमात्र से ही सहायता करने वाले पूर्व प्रसन्नदेव की मदद से उसने अपनी भूमि ( राज्य ) को मारी आदि व्याधियों से रहित देवकुरु की तरह बना दिया ।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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