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________________ श्रावक जीवन-दर्शन/८५ हंस के प्रागमन की बात सुनने से यह मूच्छित हो गया था और इसे उसी समय जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ था। उस ज्ञान के बल से इसे पूर्व जन्म के कृत्यों का स्मरण हुआ। उसके साथ ही इसने संकल्प कर लिया कि जीवन पर्यन्त प्रभु के दर्शन-वंदन बिना मुख में कुछ भी नहीं डालूगा। नियम रहित धर्म की अपेक्षा नियम सहित धर्म का अनन्त गुणा फल होता है। धर्म दो प्रकार का है- - (१) नियम रहित और (२) नियम सहित । पहला धर्म बहुत किया हो तो भी अल्प एवं अनियत फल वाला है और दूसरा धर्म थोड़ा भी किया हो तो भी उसका अनन्त एवं नियत फल है। ___ जैसे तय किये बिना किसी के यहाँ बहुत सा धन लम्बे समय तक रखने पर भी उसमें ब्याज आदि की वृद्धि नहीं होती और पहले से ही तय कर लिया जाय तो पहले दिन से ही उस धन में वृद्धि होती जाती है, उसी प्रकार धर्म में भी नियम होने से फल मिलता है। अविरति के उदय में तत्त्व को समझने पर भी श्रेणिक की तरह नियम की प्राप्ति नहीं होती है। अविरति का उदय न हो तो नियम ले सकते हैं, परन्तु आपत्ति में भी नियम में दृढ़ता तो आसन्नसिद्धि जीवों को ही होती है। पूर्व के प्रेम और बहुमान के कारण इस बालक ने एक मास की आयु में ही यह नियम ग्रहण कर लिया। इसी कारण कल इसने जिनदर्शन-वंदन किया था, अतः दूध पिया था, परन्तु आज जिन दर्शन का योग नहीं होने के कारण भूख लगने पर भी दृढ़ मनोबली इसने स्तन-पान नहीं किया और मेरी. वाणी से अभिग्रह पूरा होने पर स्तन-पान में प्रवृत्त हो गया। पूर्व भव में जो कुछ शुभ-अशुभ किया हो अथवा करने का संकल्प किया हो, वह सब अगले • जन्म में हो जाता है। ____ इस महिमावन्त धर्मदत्त को पूर्व जन्म में की गई अव्यक्त भक्ति के फलस्वरूप आश्चर्यकारी सम्पूर्ण समृद्धि प्राप्त होगी। माली कन्या के जीव भी देवभव से च्यवकर बड़े राजकुल में उत्पन्न होकर इसी की रानियाँ बनेंगे। सचमुच, एक साथ सुकृत करने वाले का योग भी एक साथ हो जाता है। ___ इस प्रकार मुनिराज की वाणी एवं बालक की नियम-दृढ़ता को देखकर राजा आदि सभी नियमयुक्त धर्म को स्वीकार करने में अग्रणी बने। 'पुत्र के प्रतिबोध के लिए मैं जाता हूँ'-इस प्रकार कहकर वे शक्तिशाली मुनि गरुड़ पक्षी की भाँति वैताढ्य पर्वत की ओर उड़ गये। तीन लोक को आश्चर्यचकित करने वाला, अपनी रूप सम्पत्ति से कामदेव को भी लज्जित करने वाला, जातिस्मरण ज्ञान वाला धर्मदत्त ग्रहण किये हुए नियम का यति की तरह पालन करता हुमा क्रमशः बड़ा होने लगा। प्रतिदिन उसके शरीर की वृद्धि को देखकर मानों परस्पर प्रतिस्पर्धा न कर रहे हों, इस प्रकार उसके लोकोत्तर रूप, लावण्य मादि गुण भी बढ़ने लगे।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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