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________________ श्राद्धविधि / ८४ किसको क्या कहूँ ? अरे ! मैंने कोई सुकृत नहीं किया । इसी कारण पुत्र से पशु की तरह मरना पड़ेगा तथा मुझे खोटी गति प्राप्त होगी । अच्छा हो, अब भी सावधान बन जाऊँ ।” इस प्रकार विश्वार कर उसने उसी समय पंचमुष्टि लौंच कर लिया । देवता ने उसे साधु-वेष प्रदान किया और उसने शीघ्र ही दीक्षा स्वीकार कर ली । उसी समय विचित्रगति को पश्चात्ताप हुआ और उसने पिता से क्षमायाचना कर पुनः राज्य ग्रहण करने के लिए कहा। पिता ने दीक्षा के कारण को समझाकर पवन की भाँति वहाँ से विहार कर दिया । यतिधर्म का पालन करते तथा दुष्कर तप तपते हुए चित्रगति मुनि को तीसरा अवधिज्ञान नौर मानों स्पर्धा नहीं करता हो ऐसा चौथा मनः पर्यवज्ञान भी उत्पन्न हो गया । ' अपने ज्ञान के बल से लाभ जानकर तुम्हारे मोह को दूर करने के लिए मैं यहाँ माया हूँ । अब मैं तुम्हारा शेष सम्बन्ध भी कहता हूँ । हे राजन् ! वसुमित्र देव च्यवकर तुम राजा बने हो । सुमित्र देव व्यवकर तुम्हारी देवी प्रीतिमती बना है । पूर्व भव के अभ्यास के कारण तुम दोनों की दृढ़ प्रीति है । अपने उत्कृष्ट श्रावकपने को बताने के लिए सुमित्र ने कभी-कभी माया का प्राचरण किया था । इसी कारण वह स्त्री के रूप में पैदा हुआ । अहो ! सज्जन पुरुषों को भी हिताहित में कैसी जड़ता आ जाती है। पहले पुत्र न हो ।" इस प्रकार के विचार के कारण देर से पुत्र पैदा हुआ। विचार करने से उसका परिणाम अत्यन्त बुरा आता है। "छोटे भाई को मेरे एक बार भी खराब एक बार धन्य देव ने सुविधिनाथ प्रभु को अपने आगामी जन्म के बारे में पूछा, तब प्रभु ने तुम्हारे पुत्र के रूप में जन्म बताया । " माता-पिता के जीवन में धर्म न हो तो पुत्र को धर्मसामग्री कहाँ से मिले ? मूल कुए में यदि पानी हो तो ही कुण्ड में पानी श्रा सकता है।" - इस प्रकार विचार कर स्वयं के बोधिबीज की प्राप्ति के लिए हंस का रूप कर रानी को वे वे बातें कहकर एवं स्वप्न देकर तुमको भी उसने आगामी भव में बोधिलाभ की प्राप्ति के लिए कई देवता भी देव भव में इस प्रकार का यत्न करते हैं और दूसरे तो मनुष्यभव में दिव्यमणि जैसे प्राप्त हुए सम्यक्त्व को भी खो बैठते हैं । वह सम्यग्दृष्टि देव, देवभव से व्यवकर तुम दोनों का पुत्र बना है। वह पुत्र ही माता के सुन्दर स्वप्न व सुन्दर दोहद का कारण था । शरीर के पीछे छाया, पति के पीछे सती स्त्री, चन्द्र के पीछे चांदनी, सूर्य के पीछे प्रकाश श्रीर मेघ के पीछे बिजली आती है, उसी प्रकार इसके पीछे जिनभक्ति रही हुई है । कल इसे जिन मन्दिर ले गये थे, वहाँ पर बारंबार भरिहन्त की प्रतिमा को देखने से एवं
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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