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________________ ४८ अभिनव प्राकृत-व्याकरण केला सो कैलाश : - ऐकार का एकार । केढवो कैतव :- ऐकार का एकार और त के स्थान पर ढ । वेहव्वं वैधव्यम् — ऐकार का एकार, ध के स्थान पर है, और य लोप तथा व् को द्वित्व | १ ( ९४ ) दैत्यादि गण में ऐ के स्थान में अइ आदेश होता है । यह नियम ए का अपवाद है । ज जैसे - दचं दैत्यम् - ऐ के स्थान पर अइ, त्य के स्थान पर च । K न्य के स्थान पर oण | < दइणं दैन्यम्— अइसरिअं ऐश्वर्यम्भइरवो भैरव : - ऐकार का एकार "> दइवअं दैवतम् - ऐकार का एकार, त लोप ओर स्वरशेष । इआलीओ वैतालिक: ऐकार का एकार त लोप, स्वर शेष तथा क लोप और स्वर शेष । 99 व का लोप और र्यम् का रिअं । " वइएसो वैदेश : - ऐकार का अइ, द लोप और स्वर शेष । वइएहो < वैदेह— " 99 वइअब्भो वैदर्भ :- ऐकार का अइ, द लोप, स्वर शेष, रेफलोप और भको द्वित्व, पूर्ववर्ती भ को ब । इस्सारो < वैश्वानर : - ऐकार का अइ, व लोप, स को द्वित्व, न कोण । कइअवं कैतवम् - ऐकार का अइ, त लोप, स्वर शेष । वइसाहो < वैशाख : - ऐकार का अइ, ख के स्थान में ह । वइसालो | वैशाल: - ऐकार का अह । -- ( ९५ ) वैरादिगण में ऐकार के स्थान में विकल्प से अइ आदेश होता है । यथावइरं, वेरं < वैरम् – ऐकार के स्थान पर अइ, विकल्पाभाव में ए । कइलासो, केलासो< कैलाश:कइरवं, केरवं < कैरवम् ;, "" १. श्रइदैत्यादौ च ८ । १ । १५१. हे० । दैत्यादि गरण के शब्द दैत्यादौ वैश्यवैशाख वैशम्पायनकैतवाः । २. वैरादौ वा ८ । १ । १५२. हे० । वैरादिगरण के शब्द - 22 "" स्वैर वैदेहवै देशक्षेत्र वैषयिका श्रपि । दैत्यादिष्वपि विज्ञेयास्तथा वैदेशिकादयः ॥ कल्पलतिका दैत्यः स्वैरं चैत्यं कैटभवैदेहको च वैशाख । वैशिकभैरव वैशम्पायन वैदेशिकाश्च दैत्यादिः ॥ - प्राकृत मंजरी ।
SR No.032038
Book TitleAbhinav Prakrit Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN C Shastri
PublisherTara Publications
Publication Year1963
Total Pages566
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size28 MB
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