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________________ ૪૬૨ अभिनव प्राकृत-व्याकरण (२८ ) अपभ्रंश में तृतीया विभक्ति के एकवचन में अन्तिम अ के स्थान पर ए हो जाता है। यथा पवसन्ते < प्रवसता-तृतीया के एक्ववन में अ को ए हुआ है। नहे < नखेन अपभ्रंश में तृतीया एकवचन में ण और अनुस्वार दोनों होते हैं। अत: तृतीया एकवचन में तीन रूप बनते हैं। यथा देवे, देवें, देवेण < देवेन। ( २६ ) अपभ्रंश में शब्द के अन्त्य अकार और डि-- सप्तमी एकवचन के स्थान में इकार और एकार होते हैं। यथा तलि धल्लइ, तले धल्लइ < तले क्षिपति । ( ३० ) अपभ्रंश में तृतीया विभक्ति के बहुवचन में अन्त्य अकार के स्थान में विकल्प से एकार आदेश होता है और हिं प्रत्यय जुड़ जाता है। यथा लक्खेहि, गुणहि । लक्षैः, गुणैः । ( ३१ ) अपभ्रंश में अकारान्त शब्दों से पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में हे और हु प्रत्यय जोड़े जाते हैं। यथा बच्छहे गृहइ< वृक्षात् गृह्णाति-हे प्रत्यय जुड़ने से । वच्छहु गृण्हइ वृक्षात् गृह्णाति-हु प्रत्यय जुड़ने से। ( ३२ ) अपभ्रंश में अकारान्त शब्दों में पञ्चमी विभक्ति के बहुवचन में हुं प्रत्यय जोड़ा जाता है। ___ यथा-गिरिसिंगहुं । गिरिशेंगेभ्यः । ( ३३ ) अपभ्रंश में अकारान्त शब्दों से पर में आनेवाले षष्ठी के बहुवचन में सु, हो और स्सु ये तीन प्रत्यय होते हैं। यथा तसु< तस्य- सु प्रत्यय जोड़ा गया है। दुल्लहहोदुर्लभस्य-हो ,, , सुअणस्सु< सुजनस्य-स्सु प्रत्यय जोड़ा जाता है। ( ३४ ) अपभ्रंश में अकारान्त शब्दों से पर में आनेवाली षष्ठी विभिक्ति के बहवचन में हैं प्रत्यय जोड़ा जाता है। यथा १. एहि ८।४।३३३ । ३. भिस्येद्वा ८।४।३३५ । ५. भ्यसो हुँ ८।४।३३५। ७. प्रामो हं ८।४।३३६ । २. डिरानेच ८।४।३३४ । ४. उसेहेंहू ८।४।३६ । ६. उसः सु-हो-स्सवः ८।४।३३८ ।
SR No.032038
Book TitleAbhinav Prakrit Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN C Shastri
PublisherTara Publications
Publication Year1963
Total Pages566
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size28 MB
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