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________________ अभिनव प्राकृत-व्याकरण आणे हि सर्वे विधयो विकल्प्यन्ते” अर्थात् अधिक प्राचीन प्राकृत आर्ष-आगमिक प्राकृत में प्राकृत के नियम विकल्प से प्रवृत्त होते हैं । हेम का प्राकृत व्याकरण रचना शैली और विषयानुक्रम के लिए प्राकृतलक्षण और प्राकृतप्रकाश का अभारी है। पर हेम ने विषय विस्तार में बड़ी पटुता दिखलायी है। अनेक नये नियमों का भी निरूपण किया है। ग्रन्थन शैली भी हेम की चण्ड और वरुचि की अपेक्षा परिष्कृत है। चूलिका पैशाची और अपभ्रंश का अनुशासन हेम का अपना है। अपभ्रंश भाषा का नियमन ११८ सूत्रों में स्वतन्त्र रूप से किया है। उदाहरणों में अपभ्रंश के पूरे दोहे रद्धत कर नष्ट होते हुए विशाल साहित्य का संरक्षण किया है। इसमें सन्देह नहीं कि आचार्य हेम के समय में प्राकृत भाषा का बहुत अधिक विकास हो गया था और उसका विशाल साहित्य विद्यमान था। अतः उन्होंने व्याकरण की प्राचीन परम्परा को अपनाकर भी अनेक नये अनुशासन उपस्थित किये हैं। त्रिविक्रमदेव का प्राकृत शब्दानुशासन जिस प्रकार आचार्य हेम ने सर्वाङ्गपूर्ण प्राकृत शब्दानुशासन लिखा है, उसी प्रकार त्रिविक्रमदेव ने भी। इनकी स्वोपज्ञवृत्ति और सूत्र दोनों ही उपलब्ध हैं। इस शब्दानुशासन में तीन अध्याय और प्रत्येक अध्याय में चार-चार पाद हैं, इस प्रकार कुल बारह पादों में यह शब्दानुशासन पूर्ण हुआ है। इसमें कुल सूत्र १०३६ हैं। त्रिविक्रमदेव ने हेम के सूत्रों में ही कुछ फेर-फार करके अपने सूत्रों की रचना की है। विषयानुक्रम हेम का ही है। इ, दि, स और ग आदि संज्ञाएँ त्रिविक्रम की नयी है, पर इन संज्ञाओं से विषयनिरूपण में सरलता की अपेक्षा जटिलता ही उत्पन्न हो गयी है। इस व्याकरण में देशी शब्दों का वर्गीकरण कर हेम की अपेक्षा एक नयी दिशा की सूचना दी है। यद्यपि अपभ्रंश के उदाहरण हेम के ही हैं, पर संस्कृत छाया देकर इन्होंने अपभ्रंश के दोहों को समझने में पूरा सौर्य प्रदर्शित किया है। त्रिविक्रम ने अनेकार्थक शब्द भी दिये हैं। इन शब्दों के अवलोकन से तात्कालिक भाषा की प्रवृत्तियों का परिज्ञान तो होता ही हैं, पर इससे अनेक सांस्कृतिक बातों पर भी प्रकाश पड़ता है। यह प्रकरण हेम की अपेक्षा विशिष्ट है इनका यह कार्य शब्द शासक का न होकर अर्थशासक का हो गया है। षड्भाषाचन्द्रिका लक्ष्मीधर ने त्रिविक्रमदेव के सूत्रों का प्रकरणानुसारी संकलन कर अपनी नयी वृत्ति लिखी है। इस संकलन का नाम ही षड्भाषाचन्द्रिका है। इस संकलन में सिद्धान्तकौमुदी का क्रम रखा गया है। उदाहरण सेतुबन्ध, गउडवहो, गाहासत्तसई, कप्पूरमंजरी आदि ग्रन्थों से दिये गये हैं । लक्ष्मीधर ने लिखा है- .
SR No.032038
Book TitleAbhinav Prakrit Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN C Shastri
PublisherTara Publications
Publication Year1963
Total Pages566
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size28 MB
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