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________________ - । है। यह विषय जैनियोंका रदा हुमाझेने से बहुत प्रवल है जिसका लिहत्तर देनेमें समाज सर्वथा असमर्थ है तो हम उसकी इच्छानुमार ही किसी भी विषय पर जिसमें वह शास्त्रार्य करना है शास्त्रार्थ करनेका चैलेज देते हैं। ... समाजका प्राय लिखना कि उनके सामीजी शान्ति और धीरज से अन्त सक प्रश्नका उत्सर अनेक दलीलों और मिसालोंसे देते रहे ठीक नहीं क्योंकि यदि ऐसा होता तो उनके ही तरफके अग्रेसर वाब मिटुनलालजी वकील स्वा मीजीसे यह क्यों कहते कि "महाराज पण्डित जीके प्रश्नका उत्तर दीजिये पं० दुर्गादत्त जीके पूर्व ही प्रार्य पमाजी होनेके विषयमें इम अपने इस से पर्वके विज्ञापनमें भले प्रकार लिख चुके हैं। हमारा कहना यह नहीं है कि पंडित दुर्गादत्तजी कम लियाकत हैं। निस्सन्देह उनको जैनमतको शरण लिए हुए केबल तीन मास ही हुए थे. इस कारण उनका जैनमत में प्रवेश - चली तरह न होनेसे जैनमतसे फिसल जाना प्रार्थयजनक नहीं है। समाजी उपदेशक होनेसे वेदोंके विषय में तो उसका ज्ञान पर्याप्त ही था और उनके बात थोड़े दिनोंसे जैनी होने पर भी हमने उनसे जैनधर्म और वेदोंकी तुलना इस कारण कराई थी कि इस थोडेसे समय में भी उन्होंने जो कुछ जैन धर्मका महत्व देखा हो उसे पवलिकमें प्रगट करें और वैसा ही उन्होंने अपने व्याख्यान में किया भी । मालूम नहीं कि दूसरे दिन वह भार्यमाजके किन शाश्वासमपर जैनधर्मसे ज्युन होगए। समाजका यह लिखना कि जैनियोंने तारीख. जलाई की शाखाका समय निश्चित कर कड़ी शर्त की है साक्षात् लोगों को धोका देना है क्योंकि हम लोगोंने तारीख ४ जनाई को शाबार्य करना नहीं लिखा था वरन यह प्रगट किया था कि तारीख ४ जुलाईको शाम तक शास्त्रार्थ करनेके विषय में समुचित उत्तर प्राजाना चाहिये, प्रार्यसमाजको उचित है कि वह इस प्रकार मिपा वातोंको प्रकाश कर पलिकको धोखेमें न डाले। तारीख ३० जूनके शास्त्रार्थका परिवान'पलिंक ने भली भांति निकाल लिया है परन्तु अब जब भार्थनमाज यह कहकर पलिकको घोर्लेमें डाल रही है कि जैनियोंने लिखित शाखा करनेसे इनकार कर दिया और इस के सिवाय वह (माये ममाज ) अपने टूटे हुए मानकी मरम्मत करने के अर्थ थोथी कार्रवाइयां कर रही है तब हम को पवलिकके हितार्थ पुनः उसको शास्त्रार्थका चैलेज देना पड़ा। . ...
SR No.032024
Book TitlePurn Vivaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Tattva Prakashini Sabha
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year1912
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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