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________________ जाहिर उद्घोषणा नं० २. गांव में भिजवाने में अनंत हिंसा करवाते हैं, (क्षामणा पत्रिका का रिवाज सब जैनियोंमें चलताहै यह अनर्थ दंडका हेतु सुधरानेकी खास आवश्यकता है) यह भी त्याग करने योग्य है। ६. वर्षा चौमासे में साधु को विहार करने की मनाई है, विवेक वान् धर्मी श्रावकभी अपना गांव छोडकर दूसरे गांव नहीं जाते, तिसपरभी ढूंढिये साधु सिर्फ अपनी महिमा बढाने के लिये वंदनाके नामसे और तपस्याके पूरके नामसे पत्र लिखवाकर या पत्रिका छपवाकर हजारों लोगों को बुलवाते हैं, आनेवाले लोग गाडी, घोडे आदिकी सवारी से या पैदल आतेहैं, उसमें त्रस स्थावर अनंत जीवों की यावत् मेंडक आदि पंचेंद्रीय जीवोकी हिंसा होती है, रेलवे की महान क्रिया लगती है, अवावर मकानोंमें ठहरने से झाडु, दीपक, स्नानादिमें व भट्टी खाने में तथा आटा, दाल, चावल, शकर, मसाले वगैरह जीवाकुल सामान बाजारसे लाकर रसोई बनवाने में और भोजन स्थान में अपार हिंसा होती है, अतएव ऐसी हिंसा के कार्य त्याग करनेयोग्यहैं । यदि ढूंढिये साधु अपनी नामवरी की झूठी शोभाका मोह छोड दें, शांतिसे आत्म कल्याणके लिये तपकरें, जिसगांवमें ठहरे हो उसगांव में अमारी घोषणा आदि जीवदया के कार्य करावें और अपने भक्तोंकों ऐसे अनर्थ मूल हिंसा के कार्य करने की मनाई कर दें, तो ऐसी महान् हिंसा का बचाव हो सकता है । पूरी २ दयाभी पल सकती है, नहीं तोऐसी महान् हिंसाके पापके आगे तप और संयम दोनों धूल में मिलते हैं । और अमुक साधु के चौमासे में ५० मण खांड गली, चार महीना रसोडा चालु रहा, इतने हजार आदमी दर्शनार्थ आये, तपके पूरमें और पूज्य पदवीमें इतने मण खांड लगी, ऐसे २ हिंसा के पापकर्मकी अनुमोदना करके भोले जीव पापके भागी होते हैं। ढूंढिये श्रावकों के प्रायः करके प्रत्येकवर्षमें इस कार्य में दो ढाई लक्ष औरतेरहापंथियोंकेलक्ष, सवालक्ष द्रव्यका विनाश होता है, इसमें जिनाशा की विराधना, अनंत जीवों की हानि तथा द्रव्यका नाश और संसार बढने का फल मिलता है, अतएव यदिइतना द्रव्य निराश्रित जैनों के बाल बच्चे, विधवा'एँ तथा अशक्त वृद्धोंके लिये उपयोग में लगे तो बडा लाभ मिले। ७. ढूंढिये साधु जब विहार करते हैं, तब भक्तों की मारफत गांव में सूचना पहुंच जाती है तथा आग के गांवमें भी अमुक समय आवेंगे ऐसी सूचना भिजवा देते हैं, उससे अनेक लोग पहुंचाने को व सामने
SR No.032020
Book TitleAgamanusar Muhpatti Ka Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherKota Jain Shwetambar Sangh
Publication Year1927
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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