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________________ परिच्छेद.] सागरदत्त और शिवकुमार. ४७ मार' बोला भाई मेरी उत्कंठा दीक्षा ग्रहण करनेकी है और मातापिता आज्ञा नहीं देते । इस लिए मैं संसारके सर्वकार्योंसे मुक्त हो भाव यति होकर यहां बैठा हूँ और इसीलिए भोजनका त्याग किया है कि मातापिता किसी तरह आज्ञा दें तो इस दु:खमय संसारके जालमेंसे निकलूं। _ 'शिवकुमार' के वचन सुनकर श्रेष्टिपुत्र 'दृढधर्मा' बोला यदि आपकी ऐसीही इच्छा है तो भोजनका त्याग मत करो क्योंकि अन्नके विना शरीर नहीं रहसकता और शरीरके विना धर्म नहीं होसकता, और इस बातको आप भी जानते हैं कि हमेशा धर्ममेंही तत्पर रहनेवाले महर्षिलोगभी शरीरकी रक्षाके लिए निर्दोष आहार पानी ग्रहण करते हैं, निराहार शरीर होनेसे कर्मकी निर्जराभी दुष्कर होती है अत एव आप आहारपानी ग्रहण करो पश्चात् जो भावी है सो होगा । यह सुन 'शिवकुमार' बोला कि हे भाई! जो तुम कहते हो सो सत्य है परंतु मेरे निमित्त बनाई हुई वस्तु मुझे नहीं कल्पती क्योंकि मैं सर्वसावघका त्याग कर चुका हूँ । इसलिए निर्दोष भोजन न मिलनसे मुझे आहार न करनाही उचित है । 'दृढधर्मा' बोला आजसे आप मेरे गुरु और मैं आपका शिष्य हूँ, आपको जिस जिस वस्तुकी जरुरत होगी वह सबही मैं निर्दोष लाकर दूंगा । 'शिवकुमार' बोला यदि ऐसा है तो छठ छठके पारणे निरंतर ऑबिलसे करूँगा। इस प्रकार सामाचारीको जाननेवाला श्रेष्ठिपुत्र 'दृढधर्मा' 'शिवकुमार' को समझाकर उसका विनय करने लगा और जिस वस्तुकी भाव यति शिवकुमारको जरुरत होती है वह निर्वद्य लादेता है । इस प्रकार शिवकी आकांक्षावाले 'शिवकुमार' को दुस्तप
SR No.032011
Book TitleParishisht Parv Yane Aetihasik Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1917
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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