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________________ २८ परिशिष्ट पर्व. दूसरा कहा कि हे "ऋषभदत्त !" तू तो बड़ा दयाधर्मी है और सर्व साधारण जीवोंपर दया करता है परंतु आज तेरे भाई "जिनदास" की क्या हालत होरही है तुझे कुछभी खयाल नहीं? और उसकी दीनावस्थापर कुछभी दयाभाव नहीं आता ? । इस प्रकारके वचन सुनकर दयामय हृदयवाला "ऋषभदत्त" शीघ्रही "जिनदास" के पास गया और उसको घभराया हुआ देखकर वोला कि हे भाई! तू घभरा मत मैं तुझे घर लेजाकर औषधादिसे अच्छा करूँगा । "ऋषभदत्त" के मधुर वचन सुनकर "जिनदास" हाथ जोड़कर बोला कि हे भाई! मुझे अब जीनेकी आशा नहीं है मैं अब आपसे इतनाही चाहता हूँ कि आप मेरे अपराध क्षमा करें और मुझे परलोकके वास्ते आराधना करावें। "ऋषभदस" "जिनदास" की विशुद्ध लेस्या देखकर बोला कि हे भाई! यदि तेरा ऐसाही विचार है तो सर्व पदार्थोपर निर्मम होकर स्वच्छ मनसे पंचपरमेष्टी नमस्कारका स्मरण कर । इस प्रकार कहकर "ऋषभदत्त" ने “जिनदास" को अनशनपूर्वक आराधना कराई । इस प्रकारके पंडित मृत्युसे काल करके "जिनदास" बड़ी भारी ऋद्धिवाला अनाहत नामा यह जंबुद्वीपका अधिपति देव हुआ है और हमारे मुखसे इसने यह मुना कि "जंबु" नामा "ऋषभदत्त" का पुत्र अंतिम केवली होगा। अत एव भावी अंतिम केवली मेरे कुलमें होनेवाले हैं यह जानकर और अपने कुलको पवित्र समझके प्रशंसा करता है। राजा श्रेणिक, भगवान महावीरखामीसे फिर पूछने लगा कि हे स्वामिन् ? इस विद्युन्माली देवको सर्व देवोंमें सूर्यके समान अति तेजस्वी होनेका क्या कारण? । करुणासमुद्र भगवान महावीरस्वामी, सुधाके समान वाणीसे बोले कि हे राजन् ? इसी
SR No.032011
Book TitleParishisht Parv Yane Aetihasik Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1917
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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