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________________ भवदत्त और भवदेव. २७ पका अधिष्ठाता "अनाहत" नामका देव समवसरणमेंसे उठकर आनंदपूर्वक नृत्य करने और ऊँचे ऊँचे स्वर से बोलने लगा कि अहो मे उत्तमं कुलं अहो मे उत्तमं कुलं । यह आश्चर्य देखकर राजा श्रेणिक, फिर भगवानसे बोला कि हे स्वामिन्! यह देव अपने कुलकी प्रशंसा क्यों करता है ? | भगवान बोले कि हे राजन् ! इस तुमारे राजगृह नामके नगर में विश्व में प्रख्यात "गुप्त" नामका एक शेठ रहता था, उस शेठके दो लड़के थे उनमें से बडेका नाम " ऋषभदत्त" और छोटेका नाम “जिनदास " था । 46 ऋषभदत्त" सदाचार में बड़ा प्रवीण था और “जिनदास " तादि व्यसनोंसे दूषित था । इस प्रकार उन दोनों भाइयोंमें चंदमा और राहूके समान भेद था । " ऋषभदत्त " " जिनदास " को व्यसनोंसे हटाने के लिए बहुतही समझाता परंतु "जिनदास " कुसंगत से बाज न आताथा अत एव " ऋषभदत्त " ने एक दिन समस्त जनों के सामने "जिनदास" को घर से बाहर निकाल दिया और पुकारके यह कह दिया कि आजसे इसके साथ मेरा कोई संबंध नहीं इसलिए इसकी फरियाद कोई मेरे पास न लावे, " ऋषभदत्त" ने जिसदिन से यह प्रतिज्ञा कीथी उसदिनसे " जिनदास " को अपने महल्लेमेंभी न घुसने दिया । "जिनदास " अब जुवारियों केही पास रहने लगा, एक दिन जुवा खेलते समय जुवारियोंके साथ "जिनदास " की लड़ाई हो पड़ी, जुवारियोंने मिलकर “जिनदास " को खूब मारा बल्कि यहांतक होगया कि "जिनदास " के बचने की कोई आशा न रही, "जिनदास" निराश हुआ हुआ जीनेकी आशा छोड़कर जमीनपर पड़ा हुआ तडफने लगा और जुवारी सब इधर उधर भाग गये । यह समाचार किसी आदमीने परमश्रावक - " ऋषभदत्त" को आकर सुनाया और
SR No.032011
Book TitleParishisht Parv Yane Aetihasik Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1917
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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