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________________ परिच्छेद.] प्रसन्नचंद्र राजर्षि और वल्कलचीरी. गया और उन अपने पुत्रके शत्रुमंत्रियोंसे मनही मनमें युद्ध करना प्रारंभ कर दिया और क्रोधके वश होकर वह अपने आपको तो मूलही गया परंतु मनके युद्धकोभी प्रत्यक्षही मानकर उन क्रूर मंत्रियों के साथ ऐसा लड़ा कि मानो कोई शस्त्रभी हाथमें न रहा परंतु पराभवी आदमीके हाथमें जो कुछभी आजावे वही शस्त्र होजाता है अंतमें प्रसनचंद्रने अपने सिरसे मुकुट उतार कर मारना चाहा परंतु जिस वक्त शिरपर हाथ फिराया तो सिरको रुंडमुंड देखकर उसको अपनी पूर्व दशा याद आई और विवेकचक्षु खोलके विचार करने लगा कि अहो धिक्कार है मुझे. मैं कौन हूँ और क्या कर रहा हूँ एक पुत्रके मोहसे मैं अपने आत्माको दुर्गतिका अधिकारी बना रहा हूँ धिक्कार हो ऐसे मोहको इस असार संसारमें कौन किसका पुत्र और कौन पिता. मैं तो अपने शरीरपरभी निर्ममल होरहा हूँ फिर मुझे पुत्र और राज्यसे क्या । इसतरह प्रसन्नचंद्र राजर्षि अपने आत्माकी निन्दा करता हुआ वहांही रहकर अपने मनमें हमें धारण करके भक्तिपूर्वक नमस्कार कर अतिचारोंकी आलोचना करके शुभ ध्यानमें लीन होगया और शुक्ल ध्यानरूप अग्निसे, अशुभकर्मरूप घासको भस्म कर दिया। इसतरह भगवद्देवके मुखसे प्रसन्नचंद्र राजर्षिका वृत्तान्त सुनकर और विशेष जाननेका जिज्ञासु हुआ हुआ राजा विनयपूर्वक कहने लगा कि हे भगवन् ! प्रसनचंद्र राजाको छोटी उमरचाले पुत्रको राजगद्दी देकर दीक्षा लेनेका क्या कारण बना सो कृपाकर फरमायें ? करुणानिधि भगवान श्रीमहावीरखामी बोले कि हे राजन् ! प्रसनचंद्र राजर्षिका वृत्तान्त लोगोंके चित्तको बड़ाही आश्चर्यकारी है अत एव सावधान होकर सुनो । पोतना
SR No.032011
Book TitleParishisht Parv Yane Aetihasik Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1917
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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