SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 196
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८२ परिशिष्ट पर्व. [सोलहवाँ नहीं देखा है, क्योंकि जब वे मुझे छोड़कर चले गये थे तब तू थोड़ेही दीनोंका गर्भ में था । तेरे पिताका नाम शय्यंभव था, उन्हें यज्ञ करानेमें बड़ा प्रेम रहता था । एक दिन यज्ञ कराते समय २ दो जैन साधु आये न जाने उन धृत मुनियोंने तेरे पिताको क्या कर दिया वे मुझसे भी विनाही मिले उन मुनियोंके पीछे चले गये, मातासे पिताका वृत्तान्त सुनकर 'मणक' के दिलमें बड़ा आश्चर्य हुआ, वह अपने मनमें विचारने लगा कि पिताका किसी तरह और कहीं भी यदि दर्शन हो तो मेरा जन्म सफल है, सिंहोंके सिंहही पैदा होते हैं जिस बालकने अपने पिताका कभी नाम तक भी न सुना था आज उसी बालक मणक' के हृदयमें पिताका वृत्तान्त सुनकर ऐसी भक्ति और प्रेम पैदा होगया कि जिससे वह अपने पिताके दर्शनविना अपने जीवनको व्यर्थ समझने लगा और रात दिन इसी रटनमें रहता है कि किस तरह पिताके दर्शन हों । एक दिन माताको खबर न करके बालक 'मणक' अपने घरसे निकल पड़ा, ब्राह्मणपुत्र होनेसे उसे भिक्षा मांगने में भी किसी प्रकारका दोष न था, अत एव वह अन्य ब्राह्मण पुत्रोंके समान भिक्षाटन करता हुआ ग्रामानुग्राम अपने पिताकी शोध करने लगा । श्रीशय्यंभवस्वामी इस अवसरमें अपने परिवार सहित चंपापुरी नगरीमें विराजते थे, एक दिन मूरिश्वर श्रीशय्यंभवस्वामी स्थंडिल जा रहे थे (यानी जंगल जानेके लिए बाहर जा रहे थे) दैवयोग उस वक्त पूर्वकृत पुन्यके योगसे 'मणक' भी किसी गाँवसे चंपापुरीकोही आ रहा था । श्रीशय्यंभवसरिने दूरसे उस बालकको आते हुऐ देखा, मणकको दूरसे आते देख श्रीशय्यंभवररिके हृदय समुद्रमें ऐसा प्रेमका पूर उछला जैसे पूर्णिमाके चंद्रको देखकर महासागरकी
SR No.032011
Book TitleParishisht Parv Yane Aetihasik Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1917
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy