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________________ परिच्छेद.] शय्यंभवसूरि और मणकमुनि. १८१ नव मासप्रति पूर्ण होनेपर ‘शय्यंभव' की भार्याने जनानन्दी सूर्यके समान पुत्ररत्नको जन्म दिया । पुत्रका जन्म होनेपर शय्यंभवकी पत्नीको जो हर्ष हुआ उस हर्षमें वह अपने प्राणप्यारे पतिके वियोगको भूल गई, परन्तु उस समय उसे इस बातका खेद भी बड़ा भारी था कि वह यह विचारती थी, मेरे प्रथमही प्रसवमें पुत्रका जन्म हुआ है यदि इस वक्त इस बालकका पिता होता तो बड़े भारी समारोहसे इसका जन्मोत्सव करता, ये विचार उसके मनही मन होते थे मगर बन क्या सकता था, अल्प पुन्यवाले जीवोंके विचार प्राय व्यर्थही जाते हैं। शय्यंभके चले जानेपर स्वजनोंने शय्यंभवकी स्त्रीसे जब गर्भके लिए पूछा था तब उसने मणयं, यह शब्द बोला था, इसी लिए उस पुत्रका नाम 'मणक' रक्खा गया, माता बड़े प्रेमसे उस पुत्ररत्नका पालन पोषन करती है, ज्यों ज्यों पुत्र वृद्धिको प्राप्त होता है त्यों त्यों माताकी आशालतायें भी वृद्धिको प्राप्त होती हैं । 'मणक' जब आठ वर्षका हुआ तब वह कुछ कुछ लौकिक व्यवहारको समझने लगा, क्योंकि वह बचपनमेंही बड़ा बुद्धिमान् और विचारशील था, अत एव वह एक दिन अपनी माताका सधवा वेष देखकर उससे बोला-माता मेरे पिताजी कहां हैं ? मैने आज तक उन्हें देखा नहीं क्या वे जीते हैं कहीं? जो तुम्हारा यह सधवाका वेष है । बालक मणकका यह वचन सुनकर उसे पति वियोग याद आगया, अत एव वह बच्चेको छातीसे लगाकर अश्रुपूर्ण नेत्रोंसे बोली-बेटा तेरे इस प्रश्नसे मेरे हृदयमें बड़ा दुःख होता है, जब तू गर्भ में था तब तेरे पिताने मुझे निराधारको छोड़कर जैन दर्शनमें दीक्षा ग्रहण करली थी, जैसे तूने तेरे पिताको नहीं देखा ऐसेही तेरे पिताने भी तुझे
SR No.032011
Book TitleParishisht Parv Yane Aetihasik Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1917
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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