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________________ परिच्छेद.] शय्यंभवमूरि और मणकमुनि. १८३ तरंगें उछलती हैं । 'मणक' भी उस मुनिचंद्रको दूरसे आते देख कुमुदके समान प्रमुदित होगया । सूरीश्वरको आज इस बालकको देखकर जितना हर्ष पैदा हुआ इतना कभी न हुआ था, इस हर्ष और आनन्दका कारण तो पाठकजन स्वयमेवही समझ गये होंगे, भगवान श्रीशय्यंभवस्वामिने प्रसन्न होकर उस बालक कसे पूछा कि तू कौन है, कहांसे आया है और किसका पुत्र है ? | बड़े रसीले खरसे 'मणक' बोला- मैं ब्राह्मणका लड़का हूँ, राजगृह नगर में रहनेवाले वत्स गोत्रीय शय्यंभव नामा मेरे पिता थे, जब मैं माताके गर्भमें था तब मेरे पिता शय्यंभव जैनमें दीक्षा ले गये थे, अब मुझे मालूम होनेसे मैं उन्हें गाँव गाँव हूँढता फिरता हूँ, यदि आप मेरे पिता शय्यंभवको जानते हैं तो -कृपाकर बतावें, मेरा विचार भी यही है कि जो मेरे पिता मुझे मिल जायें तो मैं भी उनके पास दीक्षा लेकर उनके चरणोंमें रहकर उनकी सदाकाल सेवा करूँ, जो उनकी गति सो मेरी । 'मणक' के मीठे वचनोंसे उसका वृत्तान्त सुनकर सूरीश्वरने समझ लिया कि यह हमाराही पुत्र है, अत एव वे अपना नाम न लेकर बोले- तेरे पिताको मैं जानता हूँ वे मेरे परम मित्र है उनके शरीरकी आकृती भी मेरेसी ही है उनमें और मेरेमें कुछ भेद नहीं, तू मुझेही उनके समान समझकर हे शुभाशय ! मेरेही पास दीक्षा ग्रहण कर ले क्योंकि पिता और पिताके मित्रमें कुछ भेद नहीं होता पिताका मित्र भी पितासदृशही माना जाता है । यह कह कर श्रीशय्यंभवसूरि उस अबाल बुद्धि बालaar अपने उपाश्रयमें अपने साथ ले चले और विचारने लगे कि आज बड़ा भारी सचित्त लाभ हुआ । गुरुमहाराजने सर्व सावद्य विरति प्रतिपादनपूर्वक यथाविधि उस अल्पकर्मी 'म
SR No.032011
Book TitleParishisht Parv Yane Aetihasik Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1917
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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