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________________ १८० परिशिष्ट पर्व. [सोलहवाँ आता है तब उनका चारित्रके अन्दर और भी दृढ़ता और उत्साह बढ़ता है । छठ अहम आदि घोर तपस्यायें करते हुए श्रीशय्यंभवखामिका तेज. सूर्यके समान दीपने लगा । थोड़ेही समयमें श्रीशय्यंभवस्वामिने गुरुमहाराजके चरणकमलोंमें भ्रमरताको धारण करते हुए चतुर्दश पूर्वकी विद्याको प्राप्त कर ली, अब श्रुत ज्ञानसे गुरुमहाराजकी समानताको धारण करते हुए अपने पवित्र चरणोंसे विचरकर पृथ्वी तलको पावित करते हैं । एक दिन श्रीप्रभवस्वामी अपना निर्वाण समय निकट समझकर अपने शिष्य श्रीशय्यंभवस्वामिको अपने पदपर स्थापन कर आराधनादिपूर्वक पंडित मृत्युसे देवलोकके अतिथि बन गये । इधर जब शय्यंभवद्विजने दीक्षा ग्रहण कर ली थी उस वक्त वहांके लोगोंने मिलकर साश्चर्य अफसोस जाहिर किया कि देखो 'शय्यंभव' कैसा निष्टुरोंसे भी निष्टुर है जो सर्व प्रकार सांसारिक सुख होनेपर अप्सराके समान युवती स्त्रीको त्यागकर जैन मुनियोंके पीछे लग गये । अब इस बिचारी सुशीला उसकी स्त्रीका क्या हाल होगा? स्त्रियोंको पतिके वियोगमें प्राय पुत्रका आधार होता है परन्तु इस बिचारीको तो वह भी नहीं। सगे संबंधियोंने शय्यंभवकी पत्नीसे पूछा कि हे भद्रे ! तुझे कुछ गर्भकी संभावना है या नहीं ?। 'शय्यंभव' की पत्रीको उस वक्त कुछ थोड़ेसे दिनोंका गर्भ था, अत एव उसने पूछनेपर प्राकृत भाषामें उत्तर दिया कि मणयं, अर्थात् मनाम् (यानी कुछ संभावना है) शय्यंभव द्विजकी स्त्रीने प्राकृत भाषामें जो उत्तर दिया, इससे यही मालूम होता है कि उस समय प्राकृत भाषाका भारत वर्षमें बहुतही प्रचार था । अब दिनपर दिन शय्यंभवकी पत्नीका गर्भ वृद्धिको प्राप्त होने लगा,
SR No.032011
Book TitleParishisht Parv Yane Aetihasik Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1917
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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