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________________ समाधान. परिच्छेद.] शय्यंभवमूरि और मणकमुनि. १७९ है, जब वह बुद्धिमान और विचारशील होगा तो धर्मतत्त्वको भली भाँति समझ सकेगा; मैथुन, संसराविष वृक्षका मूल है यदि मूलको काटा जाय तो यह जीव जन्ममरणरूप जो संसार है, फिर उसकी वृद्धिको प्राप्त नहीं होता, सर्व प्रकारके परिग्रहका त्याग करना बल्कि अपने शरीरपर भी निःस्पृह रहना चाहिये, किसीपर राग-द्वेष नहीं करना और सर्व जीवोंको अपनी आत्माके समान समझना चाहिये, अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य और अकिंचन, ये जो पाँच महावत हैं येही मोक्षपदका कारण हैं, यदि तुम अपनी आत्माका उद्धार करना चाहते हो तो इन पाँच महाव्रतोंको धारण करके अपने शरीरपर भी नि:स्पृह होकर निरतिचार चारित्र पालकर निर्दृत्तिस्थानको प्राप्त करो । भगवान श्रीप्रभवस्वामिके मुखारविन्दसे धर्मतत्त्व जानकर ‘शय्यंभव' संसारसे उद्विग्न हुआ हुआ भगवान श्रीप्रभवस्वामिको नमस्कार कर हाथ जोड़के यह विज्ञप्ति करने लगा कि भगवन् ! अगुरुके वचनसे बहुत समयतक मेरी अतत्त्वमें तत्त्वबुद्धि रही जैसे नसे पागल हुए आदमीको मिट्टिका पिण्ड भी सुर्वणही देख पड़ता है, वैसेही मैं भी मिथ्यात्वरूप नसमें पागल होकर आजतक अतत्त्वको तत्त्व समझता रहा, अब कुछ प्रबल पुण्यसे या आपकी कृपासे धर्मतत्त्वको जाना है, अत एव भवकूपमें पड़ते हुए जीवको हस्तालंबनके समान दीक्षा देकर मुझे कृतार्थ करो। श्रीप्रभवस्वामिने शय्यंभव- द्विजको योग्य समझकर विधिपूर्वक दीक्षा दे दी । अब श्रीशय्यंभवस्वामी दीक्षा लेकर अनेक प्रकारके अभिग्रह और घोर तपस्यायें करते हुए तथा दु:सह परिषहोंको सहन करते हुए गुरुमहाराजके साथ उल्लासपूर्वक विचरते हैं बल्कि जब कभी अत्यन्त घोर परिषह सहन करनेका समय
SR No.032011
Book TitleParishisht Parv Yane Aetihasik Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1917
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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