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________________ १७८ परिशिष्ट पर्व. [सोलहवाँ. और उपाध्यायको नमस्कार करके बोला- बस अब असली तत्त्व बतासे तुम मेरे असली उपाध्याय हो और सत्य बात बतलाने से मैं तुमारे ऊपर संतुष्ट हूँ, अत एव ये यज्ञ संबंधि सुवर्णादिके बरतन जो हजारों रुपयों की कीमत के हैं, इन्हें मैं तुमको समर्पण करता हूँ | यह कहकर 'शय्यंभव द्विज' ने जितनी वहां पर यज्ञसामग्री थी वह वही यज्ञकारक ब्राह्मणों को दे दी और आप अपने घर भी न जाकर जिधर वे मुनि गये थे उसी ओर उन्हें पूछता हुआ सीधा श्रीमभवस्वामिके पास जा पहुँचा । श्रीप्रभवस्वामिकी वसतिमें जाकर भक्तिपूर्वक क्रमसे सब मुनियोंको नमस्कार किया, मुनियोंने भी उसे धर्मलाभाशीर्वाद अभिनन्दित किया, पश्चात् हाथ जोड़कर भगवान् श्रीप्रभवस्वामिके सन्मुख बैठके यह विज्ञप्ति की - भगवन् ! निर्वृत्तिका हेतु और मोक्षका कारणभूत आप कृपा कर मुझे धर्मतत्त्व समझाओ, मेघकी धाराके समान कर्णप्रिय वाणी से भगवान श्रीप्रभवस्वामी बोले- हे भव्यात्मन् ! भव, भीरु तथा अपनी आत्माका हित इच्छनेवाले आदमीको सदैव यह विचारना चाहिये कि प्रवृत्तिमय संसारसागर से पार उता रनेवाला जो धर्मतत्त्व है वह कैसा होना चाहिये क्योंकि, इह लोक और परलोक में सुख प्रदानका कारणभूत धर्मतत्त्व के सिवाय अन्य कोई भी तत्त्व नहीं है, धर्मतत्त्वकी इच्छा करनेवाले पुरुषको सदैव सत्य वचन बोलना चाहिये, वह भी प्रिय और प्रमाणोपेत होना चाहिये, मगर ऐसा सत्य भी नहीं बोलना जिससे अन्य जीवको पीड़ा हो, सदाकाल अदत्त द्रव्य अथवा अन्य कोई वस्तु न ग्रहण करनी चाहिये, नित्य संतोषी होना चाहिये, संतोषी जन सदाकाल सुखी और बेफिकर रहता है, मैथुनका सर्वथा त्याग करना चाहिये, ब्रह्मचारी पुरुष प्रायबुद्धिशाली और विचारशील होता
SR No.032011
Book TitleParishisht Parv Yane Aetihasik Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1917
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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