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________________ परिच्छेद . ] शय्यंभवसूरि और मणकमुनि. १७७ कीही हम लोग गुप्त रीतिसे पूजा करते हैं क्योंकि उसकेही प्रभावसे हमारा यज्ञादि कर्म निर्विघ्नतया परिसमाप्त होता है बरना नारद और सिद्धपुत्रादि महातपस्वी जो अहिंसामय अईद्धर्मके पालक हैं वे अर्हत् प्रतिमाके विना हमारे इस यज्ञको खंडित कर डालते हैं, यह कहकर उपाध्यायजीने यज्ञस्तंभको खोद डाला और उसके नीचे से स्पटिक रत्नकी अर्हत्प्रतिमा निकाल कर उच्च स्वर से यों बोला इयं हि प्रतिमा यस्य देवस्य श्रीमदर्हतः । तत्त्वं तदुदितो धर्मो यज्ञादि तु विडम्बना || १ || श्रीमदर्हतः प्रणितो धर्मो जीवदयात्मकः । पशुहिंसात्मके यज्ञे धर्मसंभावनापिका || २ || अर्थात् जिस देवाधिदेवकी यह प्रतिमा है उसकाही कथन किया हुआ धर्म तत्त्वरूप है और यज्ञादि अनुष्ठान सब विडम्बनारूप है, क्योंकि जिस देवकी यह मूर्ति है उस रागद्वेष रहित देवका कथन किया हुआ जो धर्म है वह जीवदयात्मक होनेसे यथार्थ अहिंसा परमो धर्म है, यज्ञादि कर्ममें पशु आदिकी हिंसा करनी पड़ती है, इस लिए वहांपर अहिंसा परमो धर्मः यह शब्दही लागु नहीं पड़ता तो फिर धर्मकी तो संभावनाही कहां ? और भई हमारी तो आजीवकाही इससे चलती है यदि हम त्यागमय धर्मको बताने लगें तो हमारी तो वृत्तिही नष्ट होजाय और हमें कोई तीन कौड़ीको भी न पूछे, मैंने आजतक अपनी उदर पूरतिके लिए दंभसे तुम्हें बहुत ठगा पर अब तुम सत्य धर्मरूप तत्त्वको ग्रहण करो और आजतकके मेरे दंभ भरे कर्मोंपर खयाल न करके मुझे क्षमा करो । उपाध्यायकी यह वाणी सुन कर ' शय्यंभव' ने अपने हाथसे तलवार एक तरफ़ फेंक दी 23
SR No.032011
Book TitleParishisht Parv Yane Aetihasik Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1917
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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