SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२४ परिशिष्ट पर्व. [नवम . रके दृष्टान्त देकर बोध करने लगा, परन्तु जैसे मूसलधार मेघके वर्षने पर काले 'पत्थर' के अन्दर एक भी पानीका बिन्दू नहीं जाता वैसेही 'मेघरथ' का उपदेश भी 'विद्युन्माली ' को असर न कर सका। अन्त में 'मेघरथ' 'विद्युन्माली' को लेजानेको असमर्थ होकर अपने स्थानको चला गया । इधर 'विद्युन्माली ' दूसरी संतान होनेपर चाण्डालके कुलको स्वर्गके समान माननेो लगा । चाण्डाल कुलमें 'विद्युन्माली' को वस्त्र, भोजनादिकी भी बड़ी तंगी रहती थी मगर वह विषय लोलुपी उस दुःखको भी सुखके समान समझता था। जब कभी वे दोनों पुत्र उसकी गोदमें खेलते हुवे मूत देते थे तब वह उस मृतको गंगाजल के समान समझकर खुशी मनाया करता था, 'विद्युन्माली' विषयासक्त होकर उस 'चाण्डाली' की कदर्थनायें भी ऐसी सहन करता था कि जो कानोंसे सुनी भी न जायें । कुछ समय व्य तीत होनेपर भाईके स्नेहसे 'मेघरथ' फिर 'वसन्तपुर' नगरमें आया, भाईकी दुर्दशा देखके 'मेघरथ' की आँखोंमें पानी भर आया, गद्गद स्वरसे 'मेघरथ' 'विद्युन्माली ' से बोला- भाई ! इस निन्दनीय चाण्डाल कुलमें रहकर अपने निर्मल कुलको क्यों कलंकित करता है ? क्या कभी मानसरोवरमें पैदा हुआ राजइंस कीचड़वाले पानीयें क्रीड़ा करता है ? अरे भाई ! तू कुलीना होकर अपने कुलको दाग मत लगा और इस निन्दनीय कर्मको त्यागके मेरे साथ चल मैं तुझे पिताका आधा राज्य दें और देवांगनाओके समान : विद्याधरकी पुत्रियोंके साथ पानीग्रहण करके संसारके सुखोका अनुभव कराऊँगा । 'मेघरथ' ने विद्युन्मालीको बहुतही समझापा मगर उस विषयासक्त जडबुद्धिके एक भी बात ध्यानमें न आई । 'मेघरथ' ' लाचार होकर अपने घर चला गया और अपने
SR No.032011
Book TitleParishisht Parv Yane Aetihasik Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1917
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy