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________________ परिच्छेद.] मेघरंथ और विद्युन्माली. १२३ बनके समान मनोहारिणी विहारभूमि, इन सब वस्तुओंको उसने ऐसा भूला दिया जैसे मनुष्य खराब स्वप्नको भूला देता है । जैसे बराह (सूवर) रातदिन गंदकीमें मस्त रहता है वैसेही 'विद्यु•माली' भी विषयरूप गंदकीमें मस्त होकर अपने अमूल्य सम को नष्ट करता है । कुछ दिनोंके बाद ' विद्युन्माली' की स्त्रीको दूसरा गर्भ होगया । इधर विद्यासंपन्न 'मेघरथ' भाईके विरहसे बड़ी मुस्किल से एक वर्ष व्यतीत होजानेपर विचारने लगा, अहो ! मैं तो देवांगनाओंके समान रूपवाली विद्याधर पुत्रियोंके साथ मार्हस्थ्य सुखका अनुभव कर रहा हूँ और मेरा भाई इन सुखोंसे वंचित होकर 'स्वर' के समान अपने जीवनको बिता रहा है, मैं सात मजल महलोंमें रहकर अनेक प्रकारके भोजनोंका स्वाद लेता हूँ, वह विचारा श्मशान भूमिके समान उस टूटे हुए झोंपड़े में सूके हुए टुकड़े खाकर गुजारा करता है, यह विचारके 'मेघरथ' भरत क्षेत्र में फिर वसन्तपुर नगरमें आया और अपने भाईकी दशा देखकर मनमें बड़ा खेद मनाने लगा । 'मेघरथ' बोला- भाई ! इस दुःखमय जंजालको छोड़के वैताढ्य पर्वतपर चलकर विद्याधर संबंधि सुख और ऐश्वर्यका अनुभव क्यों नहीं करता ? । 'विद्युन्माली ' शर्मिन्दासा होकर और नीची गरदन करके बोला- भाई मैं क्या करूँ ? इस बिचारी बालक पुत्रवाली और गर्भवतीको निराधार छोड़नेके लिए मैं असमर्थ हूँ, इसलिए है भाई! आप कृपा करके मुझे अपना समय यहांही व्यतीत करने दो, आप वैताढ्य पर्वतपर पधारो और कभी समयान्तरमें कृपा करके मुझ अभागीको दर्शन देना । 'विद्युन्माली' के ऐसे वचन सुनकर 'मेघरथ' अपने मनमें बड़ा दुःखित हुआ और उसे लेजानेके लिए अनेक प्रका
SR No.032011
Book TitleParishisht Parv Yane Aetihasik Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1917
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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