SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 139
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिच्छेद.] मेघरथ और विद्युन्माली. १२५ पिताकी साम्राज्य लक्ष्मीको चिरकाल भोगकर अन्तमें अपने पुत्रको राजगद्दी देकर 'मेघरथ' ने मुस्थिताचार्य महाराजके पास दीक्षा ग्रहण कर ली । 'मेघरथ' घोर तपस्या करता हुआ निरतिचार चारित्र पालकर देवलोकमें देवांगनाओंफा अतिथि हुआ। 'मेघरथ' इस प्रकार सुखकी परंपराओंको प्राप्त हुआ और विषयासक्त होकर बिचारा 'विद्युन्माली' संसारसागरमें गोते खाता हुआ अनेक प्रकारके दुःखोंको प्राप्त हुआ । इसलिए हे प्रिये ! मैं उस 'विद्युन्माली' के समान विषयान्ध नहीं हूँ, जो तुमारे पेचमें आजाऊँ । मैं तो 'मेघरथ' के समान उत्तरोत्तर सुखोंका लंपट हूँ परन्तु जिसको तुम सुख मानती हो वास्तवमें यह सुख नहीं बल्कि सर्व दुःखोंका मूल कारणही यह है। ___ 'कनकसेना' बोली-स्वामिन् ! जरा विचार करो एकान्त पकड़के अति हठ करना यह सर्वथा अनुचित है, नीतिवालोंका भी यह कथन है कि-अति सर्वत्र वर्जयेत् । अति करनेवाला मनुष्य कभी भी कृत कार्य नहीं होता बल्कि 'शंखधमक' के समान दुःखको प्राप्त होता है।
SR No.032011
Book TitleParishisht Parv Yane Aetihasik Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1917
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy