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________________ कर्ताकर्माधिकार (६९-७०) जाव ण वेदि विसेसंतरं तु आदासवाण दोहंपि। अण्णाणी ताव दु सो कोहादिसु वट्टदे जीवो।। कोहादिसु वटुंतस्स तस्स कम्मस्स संचओ होदी। जीवस्सेवं बंधो भणिदो खलु सव्वदरिसीहिं।। आतमा अर आसवों में भेद जब जाने नहीं। हैं अज्ञ तबतक जीव सब क्रोधादि में वर्तन करें। क्रोधादि में वर्तन करें तब कर्म का संचय करें। हो कर्मबंधन इसतरह इस जीव को जिनवर कहें। जबतक यह जीव आत्मा और आस्रवों - इन दोनों के भेद और अन्तर को नहीं जानता है, तबतक अज्ञानी रहता हुआ क्रोधादि आस्रवों में प्रवर्तता है। क्रोधादि में प्रवर्तमान उस जीव के कर्म का संचय होता है। जीव के कर्मों का बंध वास्तव में इसप्रकार होता है - ऐसा सर्वदर्शी भगवानों ने कहा है। (७१) जइया इमेण जीवेण अप्पणो आसवाण य तहेव । णादं होदि विसेसंतरं तु तइया ण बंधो से। आतमा अर आसवों में भेद जाने जीव जब | जिनदेव ने ऐसा कहा कि नहीं होवे बंध तब || जब यह जीव आत्मा और आस्रवों का अन्तर और भेद जानता है, तब उसे बंध नहीं होता।
SR No.032006
Book TitleGatha Samaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2009
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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