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________________ जीवाजीवाधिकार पर्याप्तकेतर आदि एवं सूक्ष्म-बादर आदि सब। जड़ देह की है जीव संज्ञा सूत्र में व्यवहार से॥ शास्त्रों में देह के पर्याप्तक, अपर्याप्तक, सूक्ष्म, बादर आदि जितने भी नाम जीवरूप में दिये गये हैं; वे सभी व्यवहारनय से ही दिये गये हैं। ... (६८) मोहणकम्मस्सुदया दु वण्णिया जे इमे गुणट्ठाणा। ते कह हवंति जीवा जे णिच्चमचेदणा उत्ता॥ मोहन-करम के उदय से गुणथान जो जिनवर कहे। वे जीव कैसे हो सकें जो नित अचेतन ही कहे|| मोहकर्म के उदय से होनेवाले गुणस्थान सदा ही अचेतन हैं - ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है; अत: वे जीव कैसे हो सकते हैं ? (मालिनी ) विरम किमपरेणाकार्यकोलाहलेन स्वयमपि निभृतः सन् पश्य षण्मासमेकम्। हृदयसरसि पुंसः पुद्गलाद्भिन्नधाम्नो ननु किमनुपलब्धिर्भाति किंचोपलब्धिः॥ (हरिगीत ) हे भव्यजन ! क्या लाभ है इस व्यर्थ के बकवाद से। अब तो रुको निज को लखो अध्यात्म के अभ्यास से॥ यदि अनवरत छहमास हो निज आतमा की साधना। तो आतमा की प्राप्ति हो सन्देह इसमें रंच ना||३४|| हे भव्य ! हे भाई !! अन्य व्यर्थ के कोलाहल करने से क्या लाभ है? अत: हे भाई! तू इस अकार्य कोलाहल से विराम ले, इसे बन्द कर दे और जगत से निवृत्त होकर एक चैतन्य-मात्र वस्तु को निश्चल होकर देख ! ऐसा छहमास तक करके तो देख! तुझे अपने ही हृदय-सरोवर में पुद्गल से भिन्न, तेजवन्त, प्रकाशपुंज भगवान आत्मा की प्राप्ति होती है या नहीं ? तात्पर्य यह है कि ऐसा करने से तुझे भगवान आत्मा की प्राप्ति अवश्य होगी। -समयसार कलश पद्यानुवाद
SR No.032006
Book TitleGatha Samaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2009
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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