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________________ कर्ताकर्माधिकार ( ७२ ) णादूण आसवाणं असुचित्तं च विवरीयभावं च । दुक्खस्स कारणं ति य तदो णियत्तिं कुणदि जीवो ॥ इन आस्रवों की अशुचिता विपरीतता को जानकर । आतम करें उनसे निवर्तन दुःख कारण मानकर ॥ आस्रवों की अशुचिता एवं विपरीतता जानकर और वे दुःख के कारण हैं - ऐसा जानकर जीव उनसे निवृत्ति करता है । (७३) अहमेक्को खलु सुद्धो णिम्ममओ णाणदंसणसमग्गो । तम्हि ठिदो तच्चित्तो सव्वे एदे खयं णेमि ।। २३ मैं एक हूँ मैं शुद्ध निर्मम ज्ञान-दर्शन पूर्ण हूँ। थित लीन निज में ही रहूँ सब आस्रवों का क्षय करूँ | ज्ञानी विचारता है कि मैं निश्चय से एक हूँ, शुद्ध हूँ, निर्मम हूँ और ज्ञानदर्शन से पूर्ण हूँ । इसप्रकार के आत्मस्वभाव में स्थित रहता हुआ, उसी में लीन होता हुआ मैं इन सभी क्रोधादि आस्रवभावों का क्षय करता हूँ । ( ७४ ) जीवणिबद्धा एदे अध्रुव अणिच्चा तहा असरणा य । दुक्खा दुक्खफल त्ति य णादूण णिवत्तदे तेहिं । ये सभी जीवनिबद्ध अध्रुव शरणहीन अनित्य हैं। दुःखरूप दुःखफल जानकर इनसे निवर्तन बुध करें। ये आस्रवभाव जीव के साथ निबद्ध हैं, अध्रुव हैं, अनित्य हैं, अशरण हैं, दुःखरूप हैं और दुःख के रूप में फलते हैं, दुःख के कारण हैं - ऐसा जानकर ज्ञानी उनसे निवृत्त होता है । (७५) कम्मस्स य परिणामं णोकम्मस्स य तहेव परिणामं । ण करेइ एयमादा जो जाणदि सो हवदि णाणी ।। -
SR No.032006
Book TitleGatha Samaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2009
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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